1. सुभाष चंद्र बोस --की पहली मुलाकात गांधी से 20 जुलाई 1921 को हुई थी। गांधी जी की सलाह पर वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए काम करने लगे। वे जब कलकत्ता महापालिका के प्रमुख अधिकारी बने तो उन्होंने कलकत्ता के रास्तों का अंग्रेजी नाम हटाकर भारतीय नाम पर कर दिया। भारत की आजादी के साथ-साथ उनका जुड़ाव सामाजिक कार्यों में भी बना रहा। बंगाल की भयंकर बाढ़ में घिरे लोगों को उन्होंने भोजन, वस्त्र और सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने का साहसपूर्ण काम किया था।
भगत सिंह को फांसी की सजा से रिहा कराने के लिए वे जेल से प्रयास कर रहे थे। उनकी रिहाई के लिए उन्होंने गांधी से बात की और कहा कि रिहाई के मुद्दे पर किया गया समझौता वे अंग्रेजों से तोड़ दें। इस समझौते के तहत जेल से भारतीय कैदियों के लिए रिहाई मांगी गई थी। गांधी ब्रिटिश सरकार को दिया गया वचन तोड़ने के लिए राजी नहीं हुए, जिसके बाद भगत सिंह को फांसी दे दी गई। इस घटना के बाद वे गांधी और कांग्रेस के काम करने के तरीके से बहुत नाराज हो गए थे।
अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाष को कुल 11 बार कारावास की सजा दी गई थी। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई 1921 को छह महीने का कारावास दिया गया था। 1941 में एक मुकदमे के सिलसिले में उन्हें कलकत्ता की अदालत में पेश होना था, तभी वे अपना घर छोड़कर चले गए और जर्मनी पहुंच गए। जर्मनी में उन्होंने हिटलर से मुलाकात की। अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध के लिए उन्होंने आजाद हिन्द फौज का गठन किया और युवाओं को ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ और 'चलो दिल्ली ' का नारा भी दिया।
उनको नेता जी के नाम से भी जाना जाता है। वो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी और सबसे बड़े नेता थे। उनका जन्म 23 जनवरी 1897 और उनकी मृत्यु 18 अगस्त 1945 को हो गई थी। सुभाष चन्द्र बोस को बंगाली में शुभाष चॉन्द्रो बोशु कहा जाता था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान, अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ने के लिए उन्होंने जापान के सहयोग से आज़ाद हिन्द फौज का गठन किया था।
उनके द्वारा दिया गया जय हिन्द का नारा भारत का राष्ट्रीय नारा बन गया है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जब नेता जी ने जापान और जर्मनी से मदद लेने की कोशिश की थी तो ब्रिटिश सरकार ने अपने गुप्तचरों को 1941 में उन्हें ख़त्म करने का आदेश दिया था। नेता जी ने 5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने 'सुप्रीम कमाण्डर' के रूप में सेना को सम्बोधित करते हुए "दिल्ली चलो!" का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से बर्मा सहित इम्फाल और कोहिमा में एक साथ जमकर मोर्चा लिया।
आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति
21 अक्टूबर 1943 को सुभाष बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से स्वतन्त्र भारत की अस्थायी सरकार बनायी जिसे जर्मनी, जापान, फिलीपींस, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दी। जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। सुभाष उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा आक्रमण किया और कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त भी करा लिया। कोहिमा का युद्ध 4 अप्रैल 1944 से 22 जून 1944 तक लड़ा गया एक भयंकर युद्ध था। इस युद्ध में जापानी सेना को पीछे हटना पड़ा था और यही एक महत्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ। 6 जुलाई 1944 को उन्होंने रंगून रेडियो स्टेशन से महात्मा गांधी के नाम एक प्रसारण जारी किया जिसमें उन्होंने इस निर्णायक युद्ध में विजय के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएं मांगी।
नेताजी की मृत्यु को लेकर आज भी विवाद है। जापान में प्रतिवर्ष 18 अगस्त को उनका शहीद दिवस धूमधाम से मनाया जाता है वहीं भारत में रहने वाले उनके परिवार के लोगों का आज भी यह मानना है कि सुभाष की मौत 1945 में नहीं हुई। वे उसके बाद रूस में नज़रबन्द थे। यदि ऐसा नहीं है तो भारत सरकार ने उनकी मृत्यु से संबंधित दस्तावेज़ अब तक सार्वजनिक क्यों नहीं किए। 16 जनवरी 2014 (गुरुवार) को कलकत्ता हाई कोर्ट ने नेताजी के लापता होने के रहस्य से जुड़े खुफिया दस्तावेजों को सार्वजनिक करने की माँग वाली जनहित याचिका पर सुनवाई के लिये स्पेशल बेंच के गठन का आदेश दिया। आजाद हिंद सरकार के 75 साल पूर्ण होने पर इतिहास मे पहली बार साल 2018 मे नरेंद्र मोदी ने किसी प्रधानमंत्री के रूप में 15 अगस्त के अलावा लाल किले पर तिरंगा फहराया। 11 देशो कि सरकार ने इस सरकार को मान्यता दी थी।
पारिवारिक जीवन
नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का जन्म 23 जनवरी सन् 1897 को ओड़िसा के कटक शहर में हिन्दू परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम जानकीनाथ बोस और माँ का नाम प्रभावती था। जानकीनाथ बोस कटक शहर के मशहूर वकील थे। पहले वे सरकारी वकील थे मगर बाद में उन्होंने निजी प्रैक्टिस शुरू कर दी थी। उन्होंने कटक की महापालिका में लम्बे समय तक काम किया था और वे बंगाल विधानसभा के सदस्य भी रहे थे। अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें रायबहादुर का खिताब दिया था। प्रभावती देवी के पिता का नाम गंगानारायण दत्त था। दत्त परिवार को कोलकाता का एक कुलीन परिवार माना जाता था। प्रभावती और जानकीनाथ बोस की कुल मिलाकर 14 सन्तानें थी जिसमें 6 बेटियाँ और 8 बेटे थे। सुभाष उनकी नौवीं सन्तान और पाँचवें बेटे थे। अपने सभी भाइयों में से सुभाष को सबसे अधिक लगाव शरद चन्द्र से था। शरदबाबू प्रभावती और जानकीनाथ के दूसरे बेटे थे। सुभाष उन्हें मेजदा कहते थे। शरदबाबू की पत्नी का नाम विभावती था।
शिक्षादीक्षा से लेकर आईसीएस तक का सफर
स्कूली शिक्षा
उन्होंने कटक के प्रोटेस्टेंट यूरोपियन स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूरी की थी। 1909 में उन्होंने रेवेनशा कॉलेजियेट स्कूल में दाखिला लिया। कॉलेज के प्रिन्सिपल बेनीमाधव दास के व्यक्तित्व का सुभाष के मन पर अच्छा था। मात्र 15 साल की आयु में सुभाष ने विवेकानन्द साहित्य का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। 1915 में उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा बीमार होने के बावजूद सेकंड क्लास में पास की। 1916 में जब वे दर्शनशास्त्र (ऑनर्स) में बीए के छात्र थे किसी बात पर प्रेसीडेंसी कॉलेज के अध्यापकों और छात्रों के बीच झगड़ा हो गया सुभाष ने छात्रों का नेतृत्व संभाला जिसके कारण उन्हें प्रेसीडेंसी कॉलेज से एक साल के लिए निकाल दिया गया और परीक्षा देने पर प्रतिबन्ध भी लगा दिया। 49वीं बंगाल रेजीमेंट में भर्ती के लिए उन्होंने परीक्षा दी किन्तु आंख खराब होने के कारण उन्हें सेना के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। किसी प्रकार स्कॉटिश चर्च कॉलेज में उन्होंने प्रवेश तो ले लिया किन्तु मन सेना में ही जाने को कह रहा था। खाली समय का उपयोग करने के लिए उन्होंने टेरीटोरियल आर्मी की परीक्षा दी और फोर्ट विलियम सेनालय में रंगरूट के रूप में प्रवेश लिया। फिर ख्याल आया कि कहीं इण्टरमीडिएट की तरह बीए में भी कम नंबर न आ जाएं सुभाष ने खूब मन लगाकर पढ़ाई की और 1919 में बीए (ऑनर्स) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। कलकत्ता विश्वविद्यालय में उनका दूसरा स्थान था।
पिता की इच्छा थी कि बेटा आईसीएस बनें
पिता की इच्छा थी कि सुभाष आईसीएस बनें किन्तु उनकी आयु को देखते हुए केवल एक ही बार में यह परीक्षा पास करनी थी। उन्होंने पिता से 24 घंटे का समय यह सोचने के लिए मांगा ताकि वे परीक्षा देने या न देने पर कोई अन्तिम निर्णय ले सकें। सारी रात इसी असमंजस में वह जागते रहे कि क्या किया जाए। आखिर उन्होंने परीक्षा देने का फैसला किया और 15 सितंबर 1919 को इंग्लैंड चले गए। परीक्षा की तैयारी के लिए लंदन के किसी स्कूल में दाखिला न मिलने पर सुभाष ने किसी तरह किट्स विलियम हाल में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान की ऑनर्स की परीक्षा का अध्ययन करने हेतु प्रवेश लिया। इससे उनके रहने व खाने की समस्या हल हो गयी। हाल में एडमीशन लेना तो बहाना था उनका असली मकसद तो आईसीएस में पास होकर दिखाना था। उन्होंने 1920 में वरीयता सूची में चौथा स्थान प्राप्त करते हुए पास कर ली। इसके बाद सुभाष ने अपने बड़े भाई शरतचन्द्र बोस को पत्र लिखकर उनकी राय जाननी चाही कि उनके दिलो-दिमाग पर तो स्वामी विवेकानन्द और महर्षि अरविन्द घोष के आदर्शों ने कब्जा कर रखा है ऐसे में आईसीएस बनकर वह अंग्रेजों की गुलामी कैसे कर पायेंगे? 22 अप्रैल 1921 को भारत सचिव ईएस मान्टेग्यू को आईसीएस से त्यागपत्र देने का पत्र लिखा। एक पत्र देशबंधु चित्तरंजन दास को लिखा। किन्तु अपनी मां प्रभावती का यह पत्र मिलते ही कि "पिता, परिवार के लोग या अन्य कोई कुछ भी कहे उन्हें अपने बेटे के इस फैसले पर गर्व है।" सुभाष जून 1921 में मानसिक एवं नैतिक विज्ञान में ट्राइपास (ऑनर्स) की डिग्री के साथ स्वदेश वापस लौट आये।
स्वंतत्रता संग्राम में प्रवेश और कार्य
कोलकाता के स्वंतत्रता सेनानी देशबंधु चित्तरंजन दास के कार्य से प्रेरित होकर सुभाष दासबाबू के साथ काम करना चाहते थे। इंग्लैंड से उन्होंने दासबाबू को खत लिखकर उनके साथ काम करने की इच्छा प्रकट की। रवींद्रनाथ ठाकुर की सलाह के अनुसार भारत वापस आने पर वे सबसे पहले मुंबई गए और महात्मा गांधी से मिले। मुंबई में गांधी जी मणिभवन में निवास करते थे। वहां 20 जुलाई 1921 को गांधी जी और सुभाष के बीच पहली मुलाकात हुई। गांधी जी ने उन्हें कोलकाता जाकर दासबाबू के साथ काम करने की सलाह दी। इसके बाद सुभाष कोलकाता आकर दासबाबू से मिले। उन दिनों गाँधी जी ने अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन चला रखा था। दासबाबू इस आन्दोलन का बंगाल में नेतृत्व कर रहे थे। उनके साथ सुभाष इस आन्दोलन में सहभागी हो गए। 1922 में दासबाबू ने कांग्रेस के अन्तर्गत स्वराज पार्टी की स्थापना की। विधानसभा के अंदर से अंग्रेज़ सरकार का विरोध करने के लिए कोलकाता महापालिका का चुनाव स्वराज पार्टी ने लड़कर जीता और दासबाबू कोलकाता के महापौर बन गए।
साइमन कमीशन को काले झंडे दिखाए
जल्द ही सुभाष देश के एक महत्वपूर्ण युवा नेता बन गए, जवाहरलाल नेहरू के साथ सुभाष ने कांग्रेस के अन्तर्गत युवकों की इण्डिपेंडेस लीग शुरू की। 1927 में जब साइमन कमीशन भारत आया तब कांग्रेस ने उसे काले झंडे दिखाये। कोलकाता में सुभाष ने इस आन्दोलन का नेतृत्व किया। साइमन कमीशन को जवाब देने के लिये कांग्रेस ने भारत का भावी संविधान बनाने का काम 8 सदस्यीय आयोग को सौंपा। मोतीलाल नेहरू इस आयोग के अध्यक्ष और सुभाष उसके एक सदस्य थे। इस आयोग ने नेहरू रिपोर्ट पेश की। 1928 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कोलकाता में हुआ। इस अधिवेशन में सुभाष ने खाकी गणवेश धारण करके मोतीलाल नेहरू को सैन्य तरीके से सलामी दी। गांधी जी उन दिनों पूर्ण स्वराज्य की मांग से सहमत नहीं थे।
26 जनवरी 1931 को कोलकाता में राष्ट्र ध्वज फहराकर सुभाष एक विशाल मोर्चे का नेतृत्व कर रहे थे तभी पुलिस ने उन पर लाठी चलायी और उन्हें घायल कर जेल भेज दिया। जब सुभाष जेल में थे तब गांधी जी ने अंग्रेज सरकार से समझौता किया और सब कैदियों को रिहा करवा दिया। लेकिन अंग्रेज सरकार ने भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों को रिहा करने से साफ इन्कार कर दिया। भगत सिंह की फांसी माफ कराने के लिये गांधी जी ने सरकार से बात तो की परन्तु नरमी के साथ। सुभाष चाहते थे कि इस विषय पर गांधीजी अंग्रेज सरकार के साथ किया गया समझौता तोड़ दें। लेकिन गांधीजी अपनी ओर से दिया गया वचन तोड़ने को राजी नहीं थे। अंग्रेज सरकार अपने स्थान पर अड़ी रही और भगत सिंह व उनके साथियों को फांसी दे दी गयी।
कारावास
अपने सार्वजनिक जीवन में सुभाष को कुल 11 बार कारावास हुआ। सबसे पहले उन्हें 16 जुलाई 1921 में छह महीने का कारावास हुआ। 1925 में गोपीनाथ साहा नामक एक क्रान्तिकारी कोलकाता के पुलिस अधीक्षक चार्लस टेगार्ट को मारना चाहता था। उसने गलती से अर्नेस्ट डे नामक एक व्यापारी को मार डाला। इसके लिए उसे फाँसी की सजा दी गयी। गोपीनाथ को फाँसी होने के बाद सुभाष फूट फूट कर रोये। उन्होंने गोपीनाथ का शव माँगकर उसका अन्तिम संस्कार किया। इससे अंग्रेज़ सरकार ने यह निष्कर्ष निकाला कि सुभाष ज्वलन्त क्रान्तिकारियों से न केवल संबंध ही रखते हैं अपितु वे उन्हें उत्प्रेरित भी करते हैं। इसी बहाने अंग्रेज़ सरकार ने सुभाष को गिरफ़्तार किया और बिना कोई मुकदमा चलाये उन्हें अनिश्चित काल के लिये म्याँमार के माण्डले कारागृह में बन्दी बनाकर भेज दिया। 5 नवम्बर 1925 को देशबंधु चित्तरंजन दास कोलकाता में चल बसे। सुभाष ने उनकी मृत्यु की खबर माण्डले कारागृह में रेडियो पर सुनी। माण्डले कारागृह में रहते समय सुभाष की तबियत बहुत खराब हो गयी। उन्हें तपेदिक हो गया। परन्तु अंग्रेज़ सरकार ने फिर भी उन्हें रिहा करने से इन्कार कर दिया। सरकार ने उन्हें रिहा करने के लिए यह शर्त रखी कि वे इलाज के लिए यूरोप चले जायें। लेकिन सरकार ने यह स्पष्ट नहीं किया कि इलाज के बाद वे भारत कब लौट सकते हैं। इसलिए सुभाष ने यह शर्त स्वीकार नहीं की। 1930 में सुभाष कारावास में ही थे कि चुनाव में उन्हें कोलकाता का महापौर चुना गया। इसलिए सरकार उन्हें रिहा करने पर मजबूर हो गयी। 1932 में सुभाष को फिर से कारावास हुआ। इस बार उन्हें अल्मोड़ा जेल में रखा गया। अल्मोड़ा जेल में उनकी तबियत फिर से खराब हो गयी। चिकित्सकों की सलाह पर सुभाष इस बार इलाज के लिये यूरोप जाने को राजी हो गये।
यूरोप प्रवास
1933 में शल्यक्रिया के बाद आस्ट्रिया के बादगास्तीन में स्वास्थ्य-लाभ करते हुए सन् 1933 से लेकर 1936 तक सुभाष यूरोप में रहे। यूरोप में सुभाष ने अपनी सेहत का ख्याल रखते हुए अपना कार्य बदस्तूर जारी रखा। वहाँ वे इटली के नेता मुसोलिनी से मिले, जिन्होंने उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहायता करने का वचन दिया। आयरलैंड के नेता डी वलेरा सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये। जिन दिनों सुभाष यूरोप में थे उन्हीं दिनों जवाहरलाल नेहरू की पत्नी कमला नेहरू का ऑस्ट्रिया में निधन हो गया। सुभाष ने वहाँ जाकर जवाहरलाल नेहरू को सान्त्वना दी। 1934 में सुभाष को उनके पिता के गंभीर होने की खबर मिली। खबर सुनते ही वे हवाई जहाज से कराची होते हुए कोलकाता लौटे। यद्यपि कराची में ही उन्हें पता चल गया था कि उनके पिता की मृत्त्यु हो चुकी है फिर भी वे कोलकाता गये। कोलकाता पहुंचते ही अंग्रेज सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और कई दिन जेल में रखकर वापस यूरोप भेज दिया।
ऑस्ट्रिया में किया था एमिली शेंकल से प्रेम विवाह
सन् 1934 में जब सुभाष ऑस्ट्रिया में अपना इलाज कराने हेतु ठहरे हुए थे उस समय उन्हें अपनी पुस्तक लिखने हेतु एक अंग्रेजी जानने वाले टाइपिस्ट की आवश्यकता हुई। उनके एक मित्र ने एमिली शेंकल नाम की एक ऑस्ट्रियन महिला से उनकी मुलाकात करा दी। एमिली के पिता एक प्रसिद्ध पशु चिकित्सक थे। सुभाष एमिली की ओर आकर्षित हुए और उन दोनों में प्रेम हो गया। नाजी जर्मनी के सख्त कानूनों को देखते हुए उन दोनों ने सन् 1942 में बाड गास्टिन नामक स्थान पर हिन्दू पद्धति से शादी कर ली। वियेना में एमिली ने एक पुत्री को जन्म दिया। सुभाष ने उसे पहली बार तब देखा जब वह मुश्किल से चार सप्ताह की थी। उन्होंने उसका नाम अनिता बोस रखा था। अगस्त 1945 में ताइवान में हुई तथाकथित विमान दुर्घटना में जब सुभाष की मौत हुई, अनीता पौने तीन साल की थी। अनीता अभी जीवित है। उसका नाम अनीता बोस फाफ है।
नजरबन्दी से पलायन
नजरबन्दी से निकलने के लिए सुभाष ने एक योजना बनायी। 16 जनवरी 1941 को वे पुलिस को चकमा देते हुए एक पठान मोहम्मद ज़ियाउद्दीन के वेश में अपने घर से निकले। शरदबाबू के बड़े बेटे शिशिर ने उन्हें अपनी गाड़ी से कोलकाता से दूर गोमोह तक पहुंचाया। गोमोह रेलवे स्टेशन से फ्रण्टियर मेल पकड़कर वे पेशावर पहुंचे। पेशावर में उन्हें फॉरवर्ड ब्लॉक के एक सहकारी, मियां अकबर शाह मिले। मियां अकबर शाह ने उनकी मुलाकात, किर्ती किसान पार्टी के भगतराम तलवार से करा दी। भगतराम तलवार के साथ सुभाष पेशावर से अफगानिस्तान की राजधानी काबुल की निकल पड़े। इस सफर में भगतराम तलवार रहमत खान नाम के पठान और सुभाष उनके गूँगे-बहरे चाचा बने थे। पहाड़ियों में पैदल चलते हुए उन्होंने यह सफर पूरा किया।
जर्मनी में प्रवास एवं हिटलर से मुलाकात
बर्लिन में सुभाष सर्वप्रथम रिबेन ट्रोप जैसे जर्मनी के अन्य नेताओं से मिले। उन्होंने जर्मनी में भारतीय स्वतंत्रता संगठन और आज़ाद हिन्द रेडियो की स्थापना की। इसी दौरान सुभाष नेताजी के नाम से जाने जाने लगे। जर्मन सरकार के एक मंत्री एडॅम फॉन ट्रॉट सुभाष के अच्छे दोस्त बन गये। आखिर 29 मई 1942 के दिन, सुभाष जर्मनी के सर्वोच्च नेता एडॉल्फ हिटलर से मिले। कई साल पहले हिटलर ने माईन काम्फ नामक आत्मचरित्र लिखा था। इस किताब में उन्होंने भारत और भारतीय लोगों की बुराई की थी। इस विषय पर सुभाष ने हिटलर से अपनी नाराजगी व्यक्त की। उसके बाद हिटलर ने माफी मांगी और वो सारी चीजें निकाल दी।
टोक्यो में सुभाष चंद्र बोस, 1943
21 अक्टूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गये। आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को भर्ती किया था। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिये झांसी की रानी रेजिमेंट भी बनाई गई।
पूर्वी एशिया में नेताजी ने अनेक भाषण देकर वहां के स्थायी भारतीय लोगों से आज़ाद हिन्द फौज में भर्ती होने और उसे आर्थिक मदद देने का आवाहन किया। उन्होंने अपने आवाहन में यह संदेश भी दिया - "तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।" द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान आज़ाद हिन्द फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत पर आक्रमण किया। अपनी फौज को प्रेरित करने के लिए नेताजी ने " दिल्ली चलो" का नारा दिया।
नेताजी ने इन द्वीपों को "शहीद द्वीप" और "स्वराज द्वीप" का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा। जब आज़ाद हिन्द फौज पीछे हट रही थी तब जापानी सेना ने नेताजी के भाग जाने की व्यवस्था की। परन्तु नेताजी ने झांसी की रानी रेजिमेंट की लड़कियों के साथ सैकड़ों मील चलते रहना पसन्द किया। इस प्रकार नेताजी ने सच्चे नेतृत्व का एक आदर्श प्रस्तुत किया। 6 जुलाई 1944 को आज़ाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गांधी जी को संबोधित करते हुए नेताजी ने जापान से सहायता लेने का अपना कारण और आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द तथा आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना के उद्देश्य के बारे में बताया।
दुर्घटना और मृत्यु की खबर
द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान की हार के बाद, नेताजी को नया रास्ता ढूंढना जरूरी था। उन्होंने रूस से सहायता मांगने का निश्चय किया था। 18 अगस्त 1945 को नेताजी हवाई जहाज से मंचूरिया की तरफ जा रहे थे। इस सफर के दौरान वे लापता हो गये। इस दिन के बाद वे कभी किसी को दिखायी नहीं दिए, 23 अगस्त 1945 को टोकियो रेडियो ने बताया कि सैगोन में नेताजी एक बड़े बमवर्षक विमान से आ रहे थे कि 18 अगस्त को ताइहोकू हवाई अड्डे के पास उनका विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। विमान में उनके साथ सवार जापानी जनरल शोदेई, पाइलेट तथा कुछ अन्य लोग मारे गए। नेताजी गम्भीर रूप से जल गए थे। उन्हें ताइहोकू सैनिक अस्पताल ले जाया गया जहां उन्होंने दम तोड़ दिया। कर्नल हबीबुर्रहमान के अनुसार उनका अन्तिम संस्कार ताइहोकू में ही कर दिया गया। सितम्बर के मध्य में उनकी अस्थियां जमा करके जापान की राजधानी टोकियो के रैंकोजी मन्दिर में रख दी गयीं। भारतीय राष्ट्रीय अभिलेखागार से मिली जानकारी के अनुसार नेताजी की मृत्यु 18 अगस्त 1945 को ताइहोकू के सैनिक अस्पताल में रात 9 .00 बजे हुई थी। रा सिंह रंधावा-- का जन्म 19 नवंबर 1928 को पंजाब में अमृतसर के धरमूचक गांव में बलवंत कौर और सूरत सिंह रंधावा के घर हुआ था। अखाड़े से फिल्मी दुनिया तक का सफर दारा सिंह के लिए काफी चुनौती भरा रहा। बात चाहे कुश्ती की हो, फिल्मी दुनिया या रामायण की या फिर राजनीति की। जब बात दारा सिंह की होती है तो लोगों का ठहराव लाजिमी है। दारा सिंह वो शख्स थे, जिन्होंने कुश्ती के 500 मुकाबलों में अपराजित रहकर दुनिया को अपनी ताकत का लोहा मनवाया था। अपने छत्तीस साल के कुश्ती के करियर में कोई ऐसा पहलवान नहीं था, जिसे दारा सिंह ने अखाड़े में धूल न चटाई हो।17 वर्ष की आयु में बने पिता दारा सिंह ने अपनी जीवन के शुरुआती दौर में ही काफी मुश्किलें देखी थी। अपनी किशोर अवस्था में दारा सिंह दूध व मक्खन के साथ 100 बादाम रोज खाकर कई घंटे कसरत व व्यायाम में गुजारा करते थे। बचपन में ही उनके माता-पिता ने उनकी शादी कर दी थी.दारा सिंह का पूरा नाम था दारा सिंह रंधावा। उन्हें बचपन से ही कुश्ती का काफी शौक था। मजबूत कद काठी के दारा सिंह ने कुश्ती की दुनिया में न सिर्फ भारत का नाम ऊंचा किया, बल्कि उनके बारे में सबसे दिलचस्प बात ये है कि 50 के दशक में एक मुकाबले में दारा सिंह ने अपने से कहीं ज्यादा वजनी ऑस्ट्रेलिया के किंग कांग को पहले तो रिंग में पटखनी दी और फिर उन्हें उठाकर रिंग के बाहर ही फेंक दिया। उस वक्त दारा सिंह का वजन 130 किलो था जबकि किंग कांग 200 किलो के थे। 1983 में उन्होंने अपने जीवन का अन्तिम मुकाबला जीता और भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह के हाथों अपराजेय पहलवान का खिताब अपने पास बरकरार रखते हुए कुश्ती से सम्मानपूर्वक संन्यास ले लिया।
दारा सिंह जब भी अखाड़े में होते थे, सामने वाला पहलवान चाहे कितना भी बलवान क्यों न हो, दारा से उसका कोई मुकाबला नहीं होता था। 1947 में दारा सिंह ने 'भारतीय स्टाइल' की कुश्ती में मलेशियाई चैंपियन त्रिलोक सिंह को हराकर कुआलालंपुर में मलेशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप जीती। पांच साल तक फ्री स्टाइल रेसलिंग में दुनियाभर के पहलवानों को चित्त करने के बाद दारा सिंह भारत आकर 1954 में भारतीय कुश्ती चैंपियन बने।दारा सिंह और उनके छोटे भाई सरदारा सिंह ने मिलकर पहलवानी शुरू कर दी और धीरे-धीरे गांव के दंगलों से लेकर शहरों में कुश्तियां जीतकर अपने गांव का नाम रोशन करना शुरू कर दिया और भारत में अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश में जुट गए थे।
दारा ने साल 1959 में पूर्व विश्व चैम्पियन जार्ज गारडियान्का को पराजित करके कामनवेल्थ की विश्व चैम्पियनशिप जीती थी। 1968 में वे अमेरिका के विश्व चैम्पियन लाऊ थेज को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैम्पियन बन गए। उन्होंने 55 वर्ष की आयु तक पहलवानी की और पांच सौ मुकाबलों में से किसी एक में भी पराजय का मुंह नहीं देखा।
उसके बाद उन्होंने कॉमनवेल्थ देशों का दौरा किया और विश्व चैम्पियन किंगकाग को परास्त कर दिया था। दारा सिंह ने उन सभी देशों का एक-एक करके दौरा किया जहां फ्रीस्टाइल कुश्तियां लड़ी जाती थीं। आखिरकार अमेरिका के विश्व चैंपियन लाऊ थेज को 29 मई 1968 को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैम्पियन बन गए। 1983 में उन्होंने अपराजेय पहलवान के रूप में कुश्ती से संन्यास ले लिया।
दारा सिंह के बारे में ऐसा कहा जाता है कि कुश्ती के दिनों से ही उन्हें फिल्मों में काम मिलना शुरू हो गया था। उनके बारे में तो ये भी कहा जाता है कि परदे पर कमीज उतारने वाले वो पहले हीरो थे। सिकंदर-ए-आजम और डाकू मंगल सिंह जैसी फिल्मों से करियर शुरू करने वाले दारा सिंह आखिरी बार इम्तियाज अली की 2007 में रिलीज फिल्म 'जब वी मेट' में करीना कपूर के दादा के रोल में नजर आए थे। गुजरे जमाने में अभिनेत्री मुमताज के साथ उनकी जोड़ी बड़ी हिट मानी जाती थी। दारा की फिल्म 'जग्गा' के लिए भारत सरकार से उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार भी दिया गया था। बाद में उन्होंने टेलीवीजन सीरियलों में भी काम किया। दारा सिंह ने हिट धारावाहिक रामायण में हनुमान का किरदार निभाया था।
अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के वक्त भारतीय जनता पार्टी ने साल 2003 में उन्हें राज्यसभा का सदस्य बनाया था। वह पहले ऐसे खिलाड़ी थे जिसे राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया था। आज भी रामानंद सागर की रामायण में उनकी भूमिका हनुमान के किरदार की खूब चर्चा होती है। बीआर चोपड़ा के टीवी धारावाहिक महाभारत में भी उन्होंने हनुमान के किरदार को एक बार फिर जिया था।
2. चौधरी देवीलाल -- भारतीय राजनीति में किंगमेकर शब्द तब तक नया था जब तक कि देवीलाल के उदय को देश ने नहीं देखा था। हरियाणा की राजनीति में देवीलाल के असर को समझना हो तो सिर्फ उन रैलियों को याद किया जा सकता है जो पिछली सदी के नौवें दशक में पहले जनता दल और फिर इंडियन नेशनल लोकदल के बैनर के तले की जाती थीं। एक समय था जब बहुमत से संसदीय दल का नेता चुन लिए जाने के बावजूद देवीलाल ने अपनी जगह विश्वनाथ प्रताप सिंह को प्रधानमंत्री बना दिया था, लेकिन आज उनके परिवार में विरासत की जंग चल रही है और यह चार खेमों में बंटी दिखाई दे रही है।
हरियाणा के सिरसा जिले से ताल्लुक रखने वाले देवीलाल ने राष्ट्रीय राजनीति में ऐसा सिक्का जमाया कि आज भी लोग उन्हें याद करते हैं। यह देवीलाल ही थे जिन्होंने 1987 में हरियाणा विधानसभा के चुनाव में 90 में से 85 सीटें हासिल कर कांग्रेस को महज पांच सीटों पर ला दिया था। उनकी इस कामयाबी के बाद ही यह रूपरेखा बनने लगी थी कि देवीलाल केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस विरोधी मोर्चे का चेहरा हो सकते हैं।
देश के उपप्रधानमंत्री और हरियाणा के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके देवीलाल के उत्तराधिकारी हर साल उनका जन्मदिन सम्मान दिवस के रूप में मनाते हैं। इस बार रैली का आयोजन जाटलैंड माने जाने वाले सोनीपत जिले के गोहाना में हुआ। देवीलाल के उत्तराधिकारी अपने-अपने राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित करने की लड़ाई लड़ रहे हैं। कहा जाता है कि देवीलाल यथास्थिति में बदलाव को महत्व देते थे। मुलायम सिंह यादव को उत्तर प्रदेश और लालू प्रसाद को बिहार का मुख्यमंत्री बनवाने में उनकी भूमिका थी। उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह की विरासत के संघर्ष में 1989 में अजित सिंह और मुलायम सिंह आमने-सामने खड़े हो गए थे, लेकिन देवीलाल ने अपना समर्थन मुलायम को दिया और इससे उनकी राह आसान हो गई। लालू यादव के पास जनता दल के विधायकों का समर्थन नहीं था, लेकिन देवीलाल उनको चाहते थे।हरियाणा में भी उन्होंने अलग-अलग अवसरों पर दूसरों को आगे किया। हरियाणा के गठन से पहले दस साल तक सक्रिय राजनीति से संन्यास लेने वाले देवीलाल ने कभी भगवत दयाल को तो कभी वीरेंद्र सिंह को आगे किया। बंसीलाल को पहली बार राज्य सभा भेजने से लेकर मुख्यमंत्री बनाने में भी उनके योगदान की चर्चा राजनीतिक गलियारों में रहती है।
राजनीति के जानकार कहते हैं कि देवीलाल के परिवार के लोग उनकी विरासत को अच्छी तरह से पोषित नहीं कर पाए। हरियाणा के चार बार मुख्यमंत्री रह चुके उनके बेटे ओमप्रकाश चौटाला, जगदीश चौटाला और रणजीत सिंह में हमेशा टकराव रहा। बाद में अगली पीढ़ी में भी टकराव की खबरें आती रहीं।
ओमप्रकाश चौटाला और अजय सिंह चौटाला के जेल जाने के बाद जिस तरह से हरियाणा विधानसभा में विपक्ष के नेता अभय सिंह चौटाला ने पार्टी को संभाला उसे लेकर माना जाने लगा था कि अब सब कुछ पटरी पर आ रहा है, मगर अजय सिंह चौटाला के हिसार से सांसद बेटे दुष्यंत चौटाला की बढ़ती सक्रियता कहीं न कहीं देवीलाल की विरासत को हासिल करने के लिए संघर्ष व जिद्दोजहद की कहानी बयान कर रही है।
देवीलाल का परिवार फिलहाल चार खेमों में बंटा हुआ है। जगदीश चौटाला के बेटे आदित्य ने हाल ही में सिरसा जिले के डबवाली में मुख्यमंत्री मनोहर लाल की रैली कराई है। अभय चौटाला ने एसवाईएल नहर निर्माण के मुद्दे पर सरकार की घेरेबंदी की, लेकिन कांग्रेस विधायक करण सिंह दलाल के साथ विधानसभा में हुए जूता प्रकरण के कारण उन पर सवाल उठने लगे हैं। इसके विपरीत दुष्यंत चौटाला ने अपने पिता के जननायक सेवादल को सक्रिय बनाकर साफ संकेत दे दिया है कि भविष्य की राजनीति पर उनकी भी उतनी ही निगाह है जितनी अभय चौटाला और उनके बेटों की है।
हरियाणा की राजनीति में चौटाला परिवार के सदस्यों के बीच खींचतान का ही नतीजा है कि परिवार के सदस्यों का चुनाव में आमना-सामना हो चुका है। देवीलाल के परिवार में विरासत की जंग की शुरुआत 2000 में हुई थी। रोड़ी विधानसभा क्षेत्र से ओमप्रकाश चौटाला ने कांग्रेस प्रत्याशी अपने छोटे भाई रणजीत सिंह को हराया था।2009 में प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता के दौरान इनेलो का गृह क्षेत्र डबवाली ही परिवार की जंग का मैदान बन गया। देवीलाल परिवार के तीन सदस्यों ने एक साथ चुनाव में ताल ठोंकी।
कांग्रेस की ओर से डॉ. केवी सिंह मैदान में उतरे थे। इनेलो की ओर से देवीलाल के पौत्र अजय सिंह चौटाला खड़े हुए। कांग्रेस की ओर से टिकट न मिलने से बागी हुए पूर्व उपप्रधानमंत्री के पौत्र रवि चौटाला (प्रताप सिंह चौटाला के बेटे) ने निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ा। अपने चचेरे भाई तथा चाचा को हराकर अजय सिंह विजयी बने। बात यहीं खत्म नहीं हुई। जेबीटी भर्ती घोटाले में सजा काट रहे अजय सिंह चौटाला की पत्नी नैना सिंह चौटाला ने 2014 में राजनीति में कदम रखा।