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छोटी कहानियां
1. भविष्य की तस्वीरें।
 
जिस तरह कंप्यूटर या टेक्नोलॉजी तरक्की कर रही है, आदमी सुस्त,कामचोर, निठल्ला होता जा रहा है।कल की तस्वीर अगर हम सपने में सोचने बैठ जाएं तो बड़ा अजीब लगता है।दुनिया कितनी बदलेगी और किस हद तक जाएगी।दुनियाभर की सरकारों की जो नीतियां चल रही हैं आदमी को बिल्कुल निकम्मा और रोगी बना के छोड़ेंगी।कुछ भविष्य की तस्वीरें यहां सांझा कर लेते हैं।
 
    कल युद्ध मैदान में या शारीरिक तौर पर नहीं लड़े जायेंगे ।सरहदों की रक्षा सैनिक नहीं करेंगे।हम रोबोट से आगे की दुनिया देख रहे हैं।कल हथियार ऐसे बनेंगे,जिन्हे कहीं भी सेट किया जा सकेगा, कहीं से भी दागा जा सकेगा।कहीं एक आदमी कंप्यूटर पर बैठकर हजारों हथियार एक साथ मॉनिटर का लेगा।हजारों किलोमीटर लंबी सीमा की सुरक्षा अकेला कर लेगा।
 
    खेल मैदान में नहीं होंगे।खेल भी कंप्यूटर पर बैठकर खेलें जायेंगे।हो सकता है एक ही खिलाड़ी 7/11 खिलाड़ियों का रोल प्ले करे।खेलों का संचालन,खेलों का आयोजन, समापन , विजेता ट्रॉफी सब डिजिटली और आभासी ही होंगे।
 
    खेती भी कंप्यूटर से होगी। ड्रोन या रोबोट या उससे भी आगे की कोई तकनीक खेती करेगी।किसान सिर्फ घर में ही पड़ा रहेगा।उसकी फसल उग कर, बिक कर उसके खाते में डिजिटल मुद्रा आ जायेगी।ध्यान रहे भविष्य में सिर्फ डिजिटल मुद्रा ही रहेगी।कागज या अन्य नोट नहीं होंगे।
 
    इससे भी आगे अगर सोचें तो खेती के लिए भविष्य में जगह ही नहीं बचेगी।हर चीज की गोली बना ली जाएगी।ना उगाना, ना खाना, ना बेचना, ना पीना कुछ नहीं रहेगा।पानी, चाय, रोटी, सब्जी, दूध , फल हर चीज की गोली बाजार में आ जाएगी।
 
     स्कूल बंद हो जाएंगे।मोबाइल और कंप्यूटर पर ही पढ़ाई होगी।डिजिटल माध्यम से ही डिग्रियां मिल जायेंगी।शायद अध्यापक भी ना रहें।खुद का अध्यापक आदमी खुद ही होगा।

       मोबाइल रखने की जरूरत नहीं पड़ेगी।कुछ ऐसा होगा प्रोजेक्टर टाइप का जो दीवार, हवा , सरफेस हर जगह स्क्रीन दिखा देगा।मोबाइल, टीवी और कंप्यूटर का काम हम बिना हार्डवेयर के करेंगे।
 
 
      बिजली के लिए तारों की जरूरत नहीं पड़ेगी।जैसे मोबाइल सिग्नल पकड़ते हैं वैसे ही घरों, फैक्ट्रियों में कोई उपकरण लगाया जाएगा जो बिजली के सिग्नल पकड़ेगा। बिजली का हरेक उपकरण बिना तारों के बिजली को कैच करके काम करेगा।
 
 
        सोलर प्लेट आज जितनी बड़ी नहीं होंगी।वो चिप में सिमट जायेंगी।उन्हे आसानी से कहीं भी लाया, ले जाया,छिपाया जा सकेगा।वही चिप आज के सोलर प्लेट से हजार गुना ज्यादा बिजली पैदा करेंगी।
 
      हस्पताल भी नहीं रहेंगे।टेक्नोलॉजी इतनी तरक्की करेगी कि डॉक्टर दुनिया के एक कोने में बैठकर दूसरे कोने में इलाज करेंगे, यहां तक कि ऑपरेशन भी।हो सकता है हर आदमी डॉक्टर भी बन जाए।


       ग्रंथो में लिखा है,धार्मिक धारावाहिकों में भी देखा है आदमी को गायब होते हुए।इंद्रजीत गायब हो जाता है,राक्षस गायब हो जाते हैं,देवता गायब हो जाते हैं या अन्य कोई योद्धा अदृश्य हो जाता है ये हम सुनते और देखते आए हैं।वैज्ञानिक भी कोशिश कर रहे हैं।हम भी गायब होने के सपने देखते हैं। सुनने में आ रहा है कि अमेरिका ने सैनिकों के लिए ऐसे कपड़े बना लिए जिससे वो दिखाई ना दें।आदमी का गायब होना ये भविष्य में सच साबित होगा। पलक झपकते ही हम गायब। पलक झपकते ही यहां से वहां।जो ग्रंथो में लिखा है वो इस धरती पर जरूर होगा।
 
        टाइम मशीन समय यात्रा के बारे में भी वैज्ञानिक शोध कर रहे हैं,कल्पनाएं कर रहे हैं।हम कहानियां और फिल्म बना चुके हैं।लेकिन ये कैसे होगा,होगा भी या नहीं इस उधेड़ बुन में हैं।ये भी एक दिन सच होगा।जो ग्रंथो में है,ये हो ही नहीं सकता वो दुनिया में ना हो । पौराणिक कथा अनुसार राजा रेवत अपनी पुत्री रेवती के लिए योग्य वर की तलाश में ब्रह्मलोक में गए और जब पिता पुत्री वापिस आए तो 108 युग बीत चुके थे।वो दोनो वैसे के वैसे थे,बाकी सब बदल गया था,युग बदल गए थे,इंसान बदल गए थे।।उन्हे यकीन ही नहीं हो रहा था कि 108 युग पार करके वो धरती पर लोटे हैं।वो महाभारत काल में धरती पर लोटे थे,उन्होंने रेवती का विवाह बलराम जी से किया।
 
     मोटर गाड़ी रेल भी शायद दुनिया में ना रहें।क्योंकि आदमी को घर से बाहर निकलने की जरूरत ही नहीं होगी तो परिवहन के साधनों का क्या करेंगे।विनिर्माण उद्योगों की काया भी बिल्कुल अलग तरह को होगी।सभी निर्माण कार्य कंप्यूटर के द्वारा किया जायेगा।
 
     धर्म,जाती, विवाह, पार्टियां, बैठकें, रौनकें शायद ही इनमे से कुछ बचे भविष्य की तस्वीरों में।ये सुख दुख, रोना हंसना सब गायब होने वाला है।बचा पैदा करने के सिस्टम भी बदलने वाले हैं।भविष्य में आदमी या औरत बचा पैदा नहीं कर पाएंगी।इस सृजन को बढ़ाने वाला तरीका बदलने वाला है।
 
भविष्य में आदमी को घर से बाहर निकलने की जरूरत नहीं पड़ेगी।सारे काम घर बैठे बैठे होंगे।ये तस्वीरें सुखद लग सकती हैं, लेकिन हैं बड़ी भयानक।


2.  फ़िल्मी बचपन।

 
बचपन में फिल्में देखने का बहुत शौक था । उस वक्त टीवी किसी किसी के घर में होते थे।मौहालों में एक। फिल्म देखते वक्त एक अलग ही एहसास होता था, शरीर में सिहरन पैदा होती थी ,अलग ही खुशबू आती थी, जैसे हम दूसरी दुनिया में हैं।किरदारों के साथ रोते थे,उनके साथ डरते थे,उनके साथ हंसते थे,उनके साथ क्रोधित होते थे।
 
      गांव में बिजली भी बहुत कम रहती थी।पूरा पूरा दिन नहीं आती थी।गांव में एक ही ट्रांसफार्मर होता था।जिस कारण लोड ज्यादा होने की वजह से डिम लाइट आती थी।ट्रांसफार्मर जल भी जाता था। डी डी नेशनल और मेट्रो चैनल होता था। डी डी नेशनल पर फिल्म शुक्रवार को रात में आती थी।मेट्रो चैनल पर शनिवार 2 बजे और डी डी नेशनल पर रविवार को 4 बजे फिल्म आती थी।बाद में शनिवार को दोपहर वाली फिल्म बंद हो गई, रात में आने लगी।फिल्म के बीच में अगर लाइट चली जाती थी तो हमें हार्ट अटैक आने की नौबत आ जाती थी।ऐसा लगता जैसे बहुत बड़ा खजाना हाथ से निकल गया।हम दूर गांव के बाहर मैदान में खेलते थे।खेलते खेलते किसी का बल्ब जलता हुआ दिखाई देता था तो एकदम मैदान से भागते थे टीवी देखने के लिए।एक घर में जाते,फिर दूसरे घर में, जिसके यहां चलता मिलता उसी के यहां डेरा जम जाता।कई बार ऐसा भी होता था, हम पहुंचते थे और बिजली चली जाती थी।बहुत दुख होता था।एक बार शोले फिल्म आई हुई थी।कई बार बीच में बिजली गई।बिजली के आने जाने के साथ ही हमारी भी सांसे अटकती खटकती रही।फिल्म के समय पर ही नल आ गए। नल भी किसी किसी के घर में होता था।मां ने पानी भरने की जिम्मेदारी भी दे रखी थी तो फिल्म के बीच में पानी भरने भी आना पड़ा।फिल्म छूटने का दुख यहां शब्दो में बयां नहीं हो सकता।जिस तरह आदमी को हवा ना मिले तो फड़फड़ाने लगता है,वही हाल हमारा फिल्म छूटने पर, फिल्म के बीच में बिजली चली जाने पर होता था।
 
हमारे सबसे लोकप्रिय अभिनेता धर्मेंद्र जी थे।हमारे मतलब पूरे हरियाणा पंजाब के।हमें कहानी से मतलब नहीं था,हमें मारधाड़ की फिल्में अच्छी लगती थी। धर्मेन्द्र जी बिलकुल असली मर्द लगते थे।हम फिल्म के नाम से अंदाजा लगा लेते थे कि इस फिल्म में धर्मेंद्र जी हैं या नहीं।जैसे मर्दों वाली बात,कातिलों के कातिल, लोहा, मैदान ए जंग,शोले आदि फिल्मों के नाम ही इनके अभिनेता का पता बता देते हैं।जब भी गांव में वीडियो या विसीआर आता था तो लगभग सारी फिल्में धर्मेंद्र जी की लाई जाती थी।कोई एक आध फिल्म सन्नी देवल,अमिताभ,जितेंद्र,मिथुन,संजय दत्त,शत्रुघ्न सिन्हा की भी कभी ले आते थे।
हम रात में फिल्म देखने के लिए घर से चोरी चोरी निकलते थे।मां पूरा पहरा देती थी ताकि हम निकल ना सकें।रात में जब हम घर आते तो आते ही पिटाई होती थी।हम सोचते थे कि मां सोई हुई होगी,लेकिन वो जागती हुई मिलती। हर हफ्ते शुक्रवार और शनिवार को यही होता था।हम घर से भागने का मौका देखते रहते थे।शुक्रवार और शनिवार को मां जो बताती थी वो जल्दी जल्दी सारा काम कर देते थे। बिल्कुल आज्ञाकारी बन जाते थे। बाकी लोगों से अलग सोने की कोशिश करते। खाट पर ऐसे बिस्तर लगा देते देखने में लगे आदमी सो रहा है।मां भी चौकन्ना रहती थी।समझ जाती थी आज भागने वाले हैं।शनिवार रविवार होता तो उनकी हम पर ही नजरें रहती।हम बाहर चले जाते तो घर की कुंडी अंदर से बंद कर दी जाती थी।हम दीवारों पर चढ़कर घर आते थे।रात में आते वक्त चोर,बदमाशों और भूतों का डर भी लगता था।लेकिन फिल्में छोड़ी नहीं जाती थी।फिल्मों का इतना चाव था कि हम मार खाने के लिए तैयार रहते थे।शुक्रवार रात में मैंने सबसे पहली फिल्म सत्ते पे सत्ता देखी थी। उन दिनों मेरे ताऊ के लड़के या लड़की की शादी थी।पहले शादी में 7 दिन बान बैठना और सांझी गाने की रस्म देर रात तक चलती थी।उसी में हमारा भी फिल्म देखने का दाव लग गया था।तब तक रात में फिल्म देखने का शौक नहीं था।।मेरी बुआ का लड़का नरसी वो फिल्म दिखाने एक पड़ोसी (विजेंद्र ) के घर ले गया था। उन दिनों फिल्म के बीच में एक घंटे समाचार आते थे।पूरी रात खत्म हो जाती थी।समाचार देखकर बहुत गुस्सा आता था।शनिवार रात को पहली फिल्म जैकी श्राफ की मेरा धर्म फ़िल्म देखी थी।वो भी बुवा के लड़के नरसी के साथ।इंद्र मास्टर जी के घर के बाहर टीवी लगा रखा था और सभी लोग मैदान में नीचे बैठकर फिल्म देख रहे थे।करीब 50 लोग तो होंगे। उस वक्त हमारे घर में चिनाई का काम चल रहा था।उसे काम में हाथ बटाने के लिए बुला रखा था।इसलिए मां ने भी रोला नहीं किया।इसी फिल्म के बाद रात की फिल्में देखने का शौक चढ़ा था।शनिवार दोपहर और रविवार को कौन सी फिल्म देखी थी नाम याद नहीं।शायद धर्मेंद्र,जितेंद्र या विनोद मेहरा में से किसी एक की थी।कैसे फिल्मों का शौक चढ़ा पता नहीं।शुरुवात रविवार की फिल्मों से हुई और चस्का लगता गया।

अखबार में फिल्मों के बिलकुल छोटे छोटे पोस्टर आते थे।जिन्हें देखकर मन में जोश आता था।पोस्टर में फिल्म का नाम और कलाकारों की तस्वीरें होती थी।जिनसे हम फिल्म का अंदाजा लगाते थे, फिल्म तगडी है या बकवास।
 
करीब दो साल मैं नाना नानी के घर पे रहा था।वहीं 11वी और 12वी की पढ़ाई की थी।उससे पहले 7वी में भी कई महीने वही रहा था।गर्मी की छुट्टियों में भी हर बार एक महीना जाता था।खैर, 11वी और 12 वी की पढ़ाई के दौरान की बातें करते हैं।नाना जी गली में सोते थे तो मैं भी गली में सो जाता था।वहां से फिल्में देखने जाने में आसानी होती थी।एक बड़े मामा थे उनका घर हमारे पीछे वाली गली में था।हम वहां फिल्म देखने जाते थे।बीच में एक चौराहा था।उसके बारे में अफवाह थी कि उस चौराहे पर जिन्न आता है।मैं जब आधी रात को फिल्म देख के आता तो बहुत ज्यादा डर लगता था वो चौराहा पार करने में।चारों तरफ सन्नाटा और चौराहे के आस पास के घर खाली थे।सभी लोग गांव छोड़कर अपने खेतों में घर बनाकर रहते थे। पहले नाना जी गली में अकेले सोते थे।मुझे ये देखकर सुनकर बहुत आश्चर्य होता था कि नाना जी को अकेले गली में सोते हुए डर नहीं लगता।सर्दियों में अंदर सोते थे,तो मेरा टीवी देखने जाना बंद हो गया।टीवी तो मामा जी के घर में भी था,लेकिन वहां मामा जी देखने नहीं देते थे।फिर हमने एक जगह ट्यूशन लगाया,वो फ्री में पढ़ाते थे।जिनके पास हमने ट्यूशन लगाया था वो अध्यापक नहीं थे।ज्यादा पढ़े लिखे थे और जेई थे।हम उनके पास ट्यूशन पढ़कर,शुक्रवार - शनिवार को रास्ते में फिल्म भी देख लेते थे।लेट आते थे तो नाना जी को बोलते ट्यूशन देर तक चला।हमारे पड़ोस के दो लड़के और थे।मैं और नाना जी दहलीज में सोते थे।बाकी लोग अंदर।नाना जी कुछ नहीं बोलते थे।हमारे दो घर थे आमने सामने।एक गली के इस तरफ,दूसरा उस तरफ।दूसरा घर खाली था।हम तीन दोस्त रात में उस दूसरे घर में सोने लगे पढ़ाई के नाम पर।सर्दी के दिन थे।रात में पढ़ते और शनिवार - शुक्रवार को छुपते छिपाते टीवी देखने निकल जाते। उस घर के मुख्य किवाड़ कुछ डिले थे।बाहर से ही अंदर हाथ फंसाकर अंदर वाली कुंडी लग जाती थी।एक दिन हम अंदर वाली कुंडी लगाकर,हमारी रजाई ( स्योड़ ) के नीचे डंडी फंसाकर उसे ऐसे बना दिया जैसे आदमी सो रहा है, फिल्म देखने निकल गए।वापिस आए तो मुख्य दरवाजा खुला मिला।वो दोनो अंदर चले गए। मैं दरवाजा बंद करते हुए चक्कर आकर वहीं गिर गया।कई देर में मुझे होंस आया। उन दोनो ने ही मुझे उठाया।हमारे बिस्तर भी उल्ट पलट हो रखे थे।हम डर गए।कोई भूत प्रेत तो नहीं है या कोई आदमी अंदर आया हो।हमने सारा घर खोजा,यहां तक कि संदूक खोलकर भी देखे।कोई नहीं मिला।हम डरते हुए सो गए।सुबह हमने घर वालों से पूछा, कोई उस घर में गया तो नहीं था।सबने मना कर दिया।हम बहुत डर गए।उसी दिन वो घर छोड़ दिया।रात में घर से बाहर निकलना भी छोड़ दिया।आज तक उस रात का रहस्य अनसुलझा है।नाना के यहाँ विडीओ पर पहली फिल्म रिफ्युजी देखी थी, बड़ी परस के सामने।
 
टीवी पर सबसे पहले चित्रहार,रामायण और महाभारत देखने लगे।रामायण,महाभारत,कृष्णलीला, अलिफ लैला,युग,शक्तिमान,चित्रहार, चंद्रकांता  के दीवाने थे।सुबह बिना खाना खाए निकल जाते थे रामायण या महाभारत देखने।रविवार को ये प्रोग्राम आते थे। मां चाहती थी हम उनके साथ खेत में जाएं,कपास चुगाएं।लेकिन हम टीवी देखना चाहते।कभी मां की आंखों में धूल झोंक के भाग जाते,कभी पकड़े जाते।भाग जाते उस दिन मार पड़ती।पकड़े जाते,खेत में जाना पड़ता । उस दिन बहुत दुख होता।युग और शक्तिमान जैसे नाटक दोपहर को आते थे।स्कूल से छुट्टी होते ही हम नाटक के समय भागम भाग करके पहुंच जाते थे।स्कूल से बस्ते समेत सीधा जिसके घर टीवी होता था,उसके घर पहुंचते थे।मां घर पे रोटी चाय पिलाने खिलाने के लिए इंतजार करती रहती।ज्यादातर नाटक शनिवार - रविवार को आते थे।
फिर डिश का दौर आया।गांव में एक व्यक्ति पालड़ ने अपने घर में डिश की छतरी लगवाई थी।रोज फिल्में चलने लगी।जब बिजली होती थी तब उनके घर पे लगातार टीवी चलता था। बड़े छोटे सब लोगों की भीड़ जमा रहती थी।हम स्कूल से सीधा उनके घर पहुंचते थे।रोज अलग अलग फिल्में देखते।जो मजा फिल्म देखने का बचपन में आता था ,वैसा जिंदगी में कभी नहीं आया।
 
किसी के घर वीडियो - वीसीआर आ जाता था तो सारा गांव गली में बैठकर देखता था। विडीओ दो लोगों को ही चलाना आता था।वहीं शहर से लेकर आते थे, वहीं चलाते थे, बीच में कोई दिक्कत आती तो वहीं ठीक करते थे।।कोई खुशी का मौका होता था तब वीडियो लाए जाते थे।जैसे किसी को लड़का हुआ, किसी की शादी हुई है उसका वीडियो देखना है तो उसके साथ दो तीन फिल्में और भी ले आते थे।हम खबर लगाने में लगे रहते थे किसके घर में किस दिन खुशी के मौके आने वाले हैं।उसी दिन रात में उनके घर पहुंच जाते थे।वीडियो देखकर सुबह 4/5 बजे घर आते थे।घर पे मां की मार खानी पड़ती थी।जो सबसे पहला वीडियो देखा था उसमे मार नहीं पड़ी थी।वीडियो पर सबसे पहली फिल्म धर्मेंद्र - शत्रुघ्न वाली लोहा फिल्म देखी थी। भाना लुहार के घर में लड़का होने की खुशी में वीडियो आया हुवा था। उस दिन सुबह तक चार फिल्म चली थी।लोहा, आंधी और तूफान, दो रास्ते और चरस।मैं और मेरा दोस्त रामनिवास वीडियो का पता करने में माहिर माने जाते थे।कभी कभी हमें मौके पर पता नहीं चलता था।लेकिन जब बाद में ( सुबह )पता चलता तो बहुत ज्यादा दुख होता।हम दूसरे लडको से फिल्म की कहानी, मार धाड़ के सीन पूछते।ऐसा लगता था कि जैसे जिंदगी का बहुत बड़ा मौका छूट गया है।जो दोबारा नहीं मिलेगा। वर्दी,शोले, शेरे हिंदुस्तानी,कुंदन जैसी फिल्में छूट गई थी । फिल्म देखने के बाद अगले दिन फिल्म की कहानी सुनाने का अंदाज अलग ही होता था।उन्ही की तरह एक्टिंग,डायलॉग,मारधाड़ की आवाजें निकालना।जब तक अगली फिल्म नहीं देखते तब तक पिछली का किस्सा चलता रहता था।
 
हम बच्चों में जिद लगती थी कि सबसे तगड़ा अभिनेता कौन है।हम सबकी तुलना करने लग जाते थे।धर्मेंद्र जी को तो सब दमदार मानते ही थे।उनके अलावा मिथुन और शत्रुघ्न सिन्हा पर भी दांव लग जाता था।शत्रुघ्न सिन्हा का नाम हमने शत्रुघ्न सेना सुना था। हरियाणवी में खड़ी बोली बोलते हैं।हमें लगता था कि उनके नाम में सेना है तो उनके पास पूरी सेना होगी।और सबसे तगड़े वही होंगे।हमने उनका सिर्फ नाम सुना था, तब तक फिल्में नहीं देखी थी।
एक बार मैं सड़क से गुजर रहा था तो दो लड़के बात कर रहे थे कि मिथुन की शक्ति आई है।वो बात तो कर रहे थे नई फिल्म शक्ति के बारे में और मैं समझा कि मिथुन में शक्ति ( भगवान की ताकत ) आई है।मैं सोच में पड़ गया कि अब तो मिथुन सबसे ताकतवर हो गया है, धर्मेंद्र जी से भी।
हमें मारधाड़ की फिल्में पसंद थी।इसलिए  आमिर,सलमान की फिल्में पसंद नहीं आती थी। 1990 के दशक में प्रेम कहानियां आने लगी।हम वैसी फिल्में नहीं देखते थे। 2000 के दशक में एक समय ऐसा आया जब मारधाड़ की फिल्में बिलकुल बंद हो गई।अक्षय, सुनील शेट्टी,सन्नी देवल जैसे अभिनेता भी कॉमेडी और प्रेम कहानियों में घुस गए।मुझे बहुत दुख हुआ।लगा जैसे अब एक्शन फिल्में कभी नहीं बनेगी।फिल्में देखना छोड़ना पड़ेगा।एक आध फिल्म जैसे दीवाने हुए पागल,दस,क्रोध,गदर आती थी तो जान में जान आती थी।कॉमेडी फिल्म पहली बार हेरा फेरी देखी थी।मजा नहीं आया था।जब धड़कन फिल्म आई तो एक दोस्त ने कहा ये फिल्म देख, कहानी बहुत अच्छी है।मैने कहा कहानी क्या होती है।हमारी आदत हो गई थी स्कूल में दो घंटी लगाकर चाय की दुकान पे फिल्म देखने की, एक दिन धड़कन फिल्म आई हुई थी तो देख ली और वहां से सामान्य फिल्मों की तरफ झुकाव हुआ।कहानी क्या होती है , ये पता चला।फिर मोहब्बतें देखी।कोई अभिनेता संघर्ष कर रहा होता था तो उसकी आने वाली फिल्म के लिए प्रार्थना करता था।जैसे संजय कपूर की सिर्फ तुम, सैफ अली की हम तुम,आमिर की लगान , अक्षय खन्ना की हमराज , अमिताभ की मोहब्बतें आदि के लिए प्रार्थना की थी,वो फिल्में हिट भी हुई ।भोपाल के एक सिनेमा हॉल में अक्षय की अंदाज फिल्म देखी थी, उस वक्त बिलकुल भी मजा नहीं आया, ना ही गाने पसंद आए थे।लेकिन आज वही फिल्म और गाने अच्छे लगते हैं।
सिनेमा हाल मे पहली फिल्म अंत (सुनील शेट्टी) या गुंडा (मिथुन) मे से कोई देखी थी।तब हम बाहरवी मे पढ़ते थे।हांसी शहर मे एक छोटा सा सिनेमा घर था।टिकट शायद 5 रुपये थी।बहुत किलकारिया लग रही थी। कोई कोई तो चप्पल भी फेंक रहा था।पहली बार था इसलिए एक अलग ही एहसास हो रहा था।
 
अति हर चीज से मन भर देती है।आज ना फिल्मों का शौक रहा, ना वीडियो - विसीआर - सीडी का, ना टीवी का।
 
जब हम बारहवीं में थे तो हांसी शहर में पढ़ते थे। उस वक्त वीडियो दुकान वाले 50/60 रुपए में दुकान में वीडियो दिखाते थे।एक मनपसंद फिल्म देख सकते थे।हम 4/5 लड़के 10/10 रुपए इक्कठे करके लगभग रोज फिल्म देखने जाते थे।स्कूल में दो घंटी लगाते। दुकान पर वीडियो में पहली फिल्म सुनील शेट्टी की क्रोध देखी थी।।शहरों में एक सीटी केबल चैनल होता था।जो भी नई फिल्म रिलीज होती उसके अगले दिन सीटी केबल पर वो फिल्म मुफ्त में दिखाई जाती।फिर हमे उस सीटी केबल का शौक चढ़ा।किसी चाय की दुकान पर जाकर बैठ जाते और फिल्म देखकर ही उठते।एक गांव का लड़का गुगन नाई भी हांसी शहर में दुकान किया हुआ था,उसके यहां जाकर बैठ जाते।रोज नई नई फिल्में फ्री में देखने को मिलती।लेकिन जब हम कॉलेज में गए तो एक दम से ये लत छूट गई।कॉलेज के दिनों में कभी दुकान पर वीडियो देखने या सीटी केबल देखने नहीं गए।या तो ऐसे बनो कि कोई लत ना लगे, या ऐसे बनो यदि लत लगे तो उसे एक झटके में छोड़ सको।
हम बच्चे भी अजीब ही किस्से बनाते रहते थे।हम दूसरी या तीसरी क्लास में थे। 1990 के आसपास की बात होगी।बोलते थे की एक फिल्म आएगी जिसमे धर्मेंद्र 4 रोल निभाएगा,उसका नाम बब्बर शेर होगा।एक फिल्म आएगी जिसमे धर्मेंद्र जी,बॉबी देवल और सन्नी देवल तीनों होंगे।हमने तो वैसे ही तीर मारे थे लेकिन असलियत में उसके 10/15 साल बाद 2007 में तीनों की फिल्म 'अपने ' आई थी।
 
 
    लगभग हरियाणा के सभी लोग धर्मेंद्र और जितेंद्र को भाई समझते थे।क्योंकि उन्होंने कई फिल्मों में भाई के रोल किए।कई लोगों ने तो अपने बच्चों के नाम धर्मेंद्र - जितेंद्र रखे।हम दारा सिंह जी को धर्मेंद्र - जितेंद्र जी के पिता समझते थे।हमें लगता था कि इतने ताकतवर बच्चे दारा सिंह जी ही पैदा कर सकते हैं।जब मुझे पहली बार पता चला कि धर्मेंद्र - जितेंद्र भाई नहीं हैं , दारा सिंह इनका पिता नहीं है, तो यकीन मानिए मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई ।
 
      लता मंगेशकर जी के बारे में भी अजीब किस्सा है।हम सब बच्चे ऐसे ही फिल्मों की, अभिनेताओं की बात कर रहे थे तो एक लड़की ( नीतू )किस्सा सुनाती है कि जब लता मंगेशकर का देहांत हुआ था तो वैज्ञानिकों ने उनका गला चैक किया था, ये देखने के लिए कि उनकी आवाज में इतनी मिठास कैसे है।ये बात भी 1992 के आस पास की होगी।तब लता जी जिंदा थी।हमें पता नहीं था वो जिंदा हैं।जब करीब 8/10 साल बाद हम समझदार हुए, समाचार पढ़ने - देखने लगे तो पता चला कि लता जी तो जिंदा हैं।उस लड़की की कही बातें याद आई और बचपन की नादानियों पर बहुत हंसी आई। लता जी का निधन 2022 में हुआ है, उस किस्से के करीब 20 साल बाद।

      एक बार टीवी पर साजन फिल्म आई हुई थी।मैं थोड़ी सी देखकर आ गया।संजय दत्त ने विकलांग का रोल किया था।मारधाड़ फिल्म में थी नहीं इसलिए मज़ा नहीं आया।हम गली में खेल रहे थे तो एक लड़का उपेंद्र आया और बोला फिल्म देखने चलते हैं।मैंने कहा कोई फायदा नहीं संजय दत्त विकलांग है,कोई लड़ाई नहीं है फिल्म में।तो उसने कहा उसका नाम संजय दत्त है वो विकलांग होकर भी गुंडों को बुरी तरह से पिटेगा।इस हद तक हम हीरो को ताकत वर मानते थे।
 
       एक बार किसी के यहां वीडियो आया हुआ था।एक लड़के ने बताया कि फलाने के यहां वीडियो चल रहा है,जा के देख ले।मैने पूछा कौन सी फिल्म है।उसने बताया मोहरा फिल्म है ,सुनील शेट्टी की।मैने कभी सुनील शेट्टी का नाम नहीं सुना था।शेट्टी या सेठ हम बनियों को बोल देते थे।मेरे मन में सुनील शेट्टी की पहली तस्वीर उभरी मोटा सा,गोल मटोल,गोरा चस्मे वाला होगा।मैने सोचा हीरो ऐसा है तो फिल्म भी ऐसी ही गई गुजरी होगी।जब बाद में सुनील शेट्टी को देखा तो मेरी कल्पना से बिल्कुल अलग तस्वीर थी।
जब कोई अभिनेता फिल्म में मर जाता था तो हम बहुत रोते थे।हम समझते थे कि सच में ही मर गया।जब लोहा फिल्म में धर्मेंद्र जी आखिरी में मरते हैं तो हम बहुत रोए।बादलों में जब उनकी मूरत दिखाई दी तो कुछ सकून मिला।लगा जिंदा तो नहीं हो गए।लेकिन आंसू नहीं रुके।धर्मेंद्र जी की बहादुरी के चर्चे हमारी जुबान पर कई दिन रहे।कोई बोलता 52 गोली लगने के बाद मरे,कोई बोलता 104 गोली लगने के बाद।बताया जाता कि एक स्टेन गन में 52 गोली होती हैं।अमरीश पुरी ने धर्मेंद्र जी पर दो स्टेन गन खाली किए हैं ।जैसे हम बच्चे स्टेन गन में गोली डाल के आए थे।।बाद में जब उनको किसी और फिल्म में देखा तो आश्चर्य हुआ कि ये मर के जिंदा कैसे हो गए।

3. बेरहम जमाना - 
 
हम अपने गांव के प्राइमरी विद्यालय मे पढ़ते थे।हमारा गांव भाटोल जाट्टान हरियाणा मे है।हम पांचवी कक्षा मे थे।पांचवी कक्षा को रामचंद्र अध्यापक जी पढ़ाते थे।जो कुम्भा गांव से थे। वो साइकल से विद्यालय आते थे। कुम्भा और भाटोल की दूरी 5 किलोमीटर है, कच्चा रास्ता था।
 
रामचंद्र जी को हम बच्चे सबसे ज्यादा होशियार अध्यापक मानते थे क्योंकि वो हर साल पांचवी कक्षा को पढ़ाते थे।दूसरा कोई अध्यापक पांचवी को पढ़ाने की हिम्मत नहीं करता था।वो कक्षा मे आते, बीड़ी पीते, किताब पे नजर मारते, फिर पढ़ाना शुरु करते।
 
वो ना इधर उधर की बाते करते थे, ना हँसते थे, ना कुछ सुनते थे, सिर्फ श्यामपट पे पढ़ाते और चले जाते।कभी कभी किसी बात या शरारत को लेकर पिटाई भी कर देते थे।
 
हमारी कक्षा के एक बच्चे की माँ का देहांत हो गया।वो एक महीना विद्यालय मे नहीं आया।महीने बाद एक दिन वो बच्चा आया। अध्यापक ने नया बच्चा समझ के उसे उठाया।वो सदमे मे था, कुछ बोल नहीं पा रहा था।इतना छोटा बच्चा कितना दर्द होगा उसके सीने मे।कैसे हिम्मत करके वो विद्यालय आया होगा।किस तरह उसके घर वालों ने उस बच्चे को विद्यालय आने के लिए तैयार किया होगा।अन्य बच्चों ने ही अध्यापक को बताया कि वो कक्षा का ही विद्यार्थी है और उसकी माँ का देहांत हो गया था जिस बजह से वो विद्यालय नहीं आ रहा था।
 
अध्यापक के शब्द थे ' माँ गुजर गई तो क्या स्कूल नहीं आएगा।' अध्यापक जी ने उसे बहुत पिटा । उन्हे बिल्कुल भी दया नहीं आई।हम भी मन ही मन रो रहे थे।उस बच्चे के दर्द को महसूस कर रहे थे।
 
वो थप्पड़, वो घटना,वो दर्द,वो चेहरा, वो शब्द आज भी मेरे दिलो दिमाग मे छपे हुए हैं ।
 
वो बच्चा आज जवान और हट्टा कट्टा है, उसे वो घटना याद है या नहीं, मुझे नहीं पता । लेकिन मै उस घटना को भूल नहीं पा रहा। कुछ घटनाए विशेषकर बचपन की घटनाए उम्र भर दिमाग मे छपी रहती है।

 4.   दर्द -
 
एक शाम को हम हमारी गली के छोर पर मैदान मे अन्टे (कंचे) खेल रहे थे।गली मे से किसी की जोर जोर से रोने की आवाजे आई। इतनी जोर से कोई औरत रो रही थी, बिल्कुल पास मे रोती हुई महसूस हो रही थी।हालाँकि वो काफी दूर थी। मन बहुत बेचैन था, जैसे अपनों के लिए होता है। मन कर रहा था जाके देखें कौन है, लेकिन फिर रुक जाते, खेलने लग जाते।जब काफी देर से आवाजे आनी बंद नहीं हुई, या खेल ख़त्म हो गया अंधेरा होने की वजह से तब हमने सोचा देखते हैं किस को क्या हुआ?
हम उस तरफ चल पड़े, वो आवाज हमारे घर से आ रही थी।हम दहलज मे थे, कई औरतें हमारे आंगन मे थी।मैने किसी को कहते सुना कि चौट माँ को लगी है।कैसे लगी ये मै सुन नहीं पाया, ना हिम्मत हुई।मै वहीं दहलज मे एक कौने मे दुबक गया और रोने लगा।पता नहीं उस कौने से मै कब निकला,कब माँ के पास गया,गया भी या नहीं गया,उनका हाल पूछा या नहीं,बड़ी बहन का क्या हाल था,छोटे भाई का क्या हाल था, कुछ याद नहीं।बाद मे पता चला कि पापा ने माँ के सिर पे गिलास फेंक के मारा।जिससे उनका सिर फुट गया।गांव से ही एक डॉक्टर को बुलाया गया , जिन्होंने टांके लगाए, काफी खुन बह गया।
     घर का काम बहन को करना पड़ता था।बहन उस वक्त ज्यादा से ज्यादा 10 साल की होगी, मै 8 साल का।घर मे भैंस और बैल भी थे।उनका गोबर भी बहन ने ढोया ।
 
माँ की तबीयत अभी सही नहीं हुई थी,कमजोरी थी। खेत मे फसल आ गई थी। कपास की फसल थी। मजदूर उस वक्त लगाए नहीं जाते थे।खुद ही कपास चुगते थे।पापा ने साफ बोल दिया कपास साथ मे चुगाओ गी तो मै भी काम करूंगा, नहीं तो फसल खेत मे ही खराब हो जायेगी, मुझे मतलब नहीं।माँ को बिमारी मे भी खेत मे जाना पड़ा। खड़ा नहीं हुआ जाता था,फिर भी कपास चुगी ।शाम को पशुओ के लिए चारा ( ज्वार)  भी माँ को काटनी पड़ती। पापा नहीं काटते थे।बहन घर का काम करती।मै स्कूल से सीधा खेत मे जाता।कपास चुगाता और शाम को ज्वार कटवाता।मै काम मे कैल (परेशान) हो जाता तो रूठ जाता, बोलता मै नहीं करूंगा, मुझसे नहीं हो रहा।तो माँ प्यार से समझाती,प्रार्थना करती।बोलती बिमारी मे मुझसे भी नहीं हो रहा।लेकिन करेंगे नहीं तो फसल खराब हो जायेगी, खाएंगे क्या? तुम्हारे पापा तो घर छोड़ के भाग जाएंगे।पापा मे जिम्मेदारी नाम की चीज नहीं थी।महीनों घर से गायब रहते थे।फसल बेच के भाग जाते, खड़ी फसल छोड़ के भाग जाते, घर खर्च का पैसा नहीं देते थे।बड़ी मुश्किल से घर चलता। सरकारी स्कूल की एक रुपया फीस भी देने को नहीं होती थी।एग्जाम फीस के 100 रुपये भी, महीना फीस के 5-10 रुपये भी, हम किसी और से उधार लेके आते थे।
 
जब घर रूपी गाडी के दो पहिये सही से ना जुड़े तो घर नर्क बन जाता है।चाहे वो पति पत्नी हों,  चाहे वो माँ बाप - बच्चे हों।रोज की कलह जीने नहीं देती।बिना बात के झगड़े होने लगते हैं ।बहुत से झगड़े ऐसे हैं जो हों हीं ना, अगर दिल मिलते हों ।बहुत सी लड़ाइयां टाली जा सकती हैं,  अगर आदमी थोड़ी देर शांत रह जाए या दिल पे ठेस ना ले।अगर हम एक दूसरे का सम्मान करें, एक दूसरे की भावना समझें, एक दूसरे की बात मानें तो बहुत से झगड़े टल जाएं ।
 

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