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धर्म-- अनसुनी कहानियां।
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धर्म-- अनसुनी कहानियां।
   
1.  महाभारत का युद्ध --- महाभारत के अनुसार, कुरु ने जिस क्षेत्र को बार-बार जोता था, उसका नाम कुरुक्षेत्र पड़ा। कहते हैं कि जब कुरु इस क्षेत्र की जुताई कर रहे थे तब इन्द्र ने उनसे जाकर इसका कारण पूछा। कुरु ने कहा कि जो भी व्यक्ति इस स्थान पर मारा जाए, वह पुण्य लोक में जाए, ऐसी मेरी इच्छा है। इन्द्र उनकी बात को हंसी में उड़ाते हुए स्वर्गलोक चले गए। ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने अन्य देवताओं को भी ये बात बताई।
देवताओं ने इन्द्र से कहा कि यदि संभव हो तो कुरु को अपने पक्ष में कर लो। तब इन्द्र ने कुरु के पास जाकर कहा कि राजा कुरु तुम व्यर्थ ही कष्ट कर रहे हो। यदि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर या युद्ध करके यहां मारा जायेगा तो वह स्वर्ग का भागी होगा। कुरु ने यह बात मान ली। ये बात भीष्म, कृष्ण आदि सभी जानते थे, इसलिए महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया।


 दूसरी मान्यता -- सबको पता है कि गीता का उपदेश श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कुरुक्षेत्र में ही दिया था, जहां महाभारत का युद्ध हुआ था। लेकिन आज भी महाभारत से जुड़े ऐसे कई रहस्य हैं, जिनके बारे में बहुत कम ही लोगों को पता है। आज हम एक ऐसे ही रहस्य से पर्दा उठाने जा रहे हैं और आपको बताने जा रहे हैं कि महाभारत का युद्ध आखिर कुरुक्षेत्र में ही क्यों हुआ था, किसी और जगह क्यों नहीं? महाभारत का युद्ध कौरवों और पांडवों के बीच हुआ था, जिसमें दोनों तरफ से करोड़ों योद्धा मारे गए थे। ये संसार का सबसे भीषण युद्ध था। उससे पहले न तो कभी ऐसा युद्ध हुआ था और न ही भविष्य में कभी ऐसा युद्ध होने की संभावना है। कुरुक्षेत्र की धरती को महाभारत के युद्ध के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने ही चुना था, लेकिन उन्होंने कुरुक्षेत्र को ही महाभारत युद्ध के लिए क्यों चुना, इसके पीछे एक गहरा रहस्य छुपा है। शास्त्रों के मुताबिक, महाभारत का युद्ध जब तय हो गया तो उसके लिये जमीन तलाश की जाने लगी। भगवान श्रीकृष्ण इस युद्ध के जरिए धरती पर बढ़ते पाप को मिटाना चाहते थे और धर्म की स्थापना करना चाहते थे। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण को ये डर था कि भाई-भाइयों के, गुरु-शिष्यों के और सगे-संबंधियों के इस युद्ध में एक दूसरे को मरते देखकर कहीं कौरव और पांडव संधि न कर लें। इसलिए उन्होंने युद्ध के लिए ऐसी भूमि चुनने का फैसला किया, जहां क्रोध और द्वेष पर्याप्त मात्रा में हों। इसके लिए श्रीकृष्ण ने अपने दूतों को सभी दिशाओं में भेजा और उन्हें वहां की घटनाओं का जायजा लेने को कहा। सभी दूतों ने सभी दिशाओं में घटनाओं का जायजा लिया और भगवान श्रीकृष्ण को एक-एक कर उसके बारे में बताया। उसमें से एक दूत ने एक घटना के बारे में बताया कि कुरुक्षेत्र में एक बड़े भाई ने अपने छोटे भाई को खेत की मेंड़ टूटने पर बहते हुए वर्षा के पानी को रोकने के लिए कहा, लेकिन उसने ऐसा करने से साफ इनकार कर दिया। इस पर बड़ा भाई गुस्से से आग बबूला हो गया और उसने छोटे भाई को छुरे से गोद कर मार डाला और उसकी लाश को घसीटता हुआ उस मेंड़ के पास ले गया और जहां से पानी निकल रहा था वहां उसकी लाश को पानी रोकने के लिए लगा दिया। दूत द्वारा सुनाई इस सच्ची घटना को सुनकर श्रीकृष्ण ने तय किया कि यही भूमि भाई-भाई, गुरु-शिष्य और सगे-संबंधियों के युद्ध के लिए बिल्कुल उपयुक्त है। श्रीकृष्ण अब बिल्कुल निश्चिंत हो गए कि इस भूमि के संस्कार यहां पर भाइयों के युद्ध में एक दूसरे के प्रति प्रेम उत्पन्न नहीं होने देंगे। इसके बाद उन्होंने महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में करवाने का एलान कर दिया। 

2.  सूरदास भक्ति धारा के महान कवि सूरदास की जन्म तिथि और जन्मस्थान को लेकर साहित्यकारों में काफी मतभेद है. फिर भी ग्रंथों से प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर माना जाता है कि महाकवि सूरदास का जन्म साल 1535 में वैशाख शुक्ल पंचमी को रुनकता नामक गांव में हुआ था. यह गांव मथुरा-आगरा मार्ग के किनारे स्थित है. उनके पिता का नाम रामदास था. वह भी एक गीतकार थे. कहा जाता है कि सूरदास जन्मांध थे, पर इसका भी कोई प्रमाणिक साक्ष्य नहीं मिलता. 
भगवद भक्ति में लीन रहने वाले सूरदास ने अपने को पूरी तरह से कृष्ण भक्ति में समर्पित कर दिया था. मान्यता है कि कृष्णभक्ति के चलते उन्होंने महज 6 साल की उम्र में अपने पिता की आज्ञा लेकर घर छोड़ दिया था. इसके बाद से ही वे युमना तट के गौउघाट पर रहने लगे. कहते हैं जब वह भगवान कृष्ण की लीला भूमि वृन्दावन धाम की यात्रा पर निकले तो उनकी मुलाकात बल्लभाचार्य से हुई. 
महाकवि सूरदास ने बल्लभाचार्य से ही भक्ति की दीक्षा प्राप्त की. सूरदास और उनके गुरु वल्लभाचार्य के बारे में रोचक तथ्य यह भी है कि गुरु - शिष्य की आयु में महज 10 दिन का अंतर था. कुछ विद्वान गुरु बल्लभाचार्य का जन्म 1534 में वैशाख् कृष्ण एकादशी को को मानते हैं, इसीलिए कई सूरदास का जन्म भी 1534 की वैशाख शुक्ल पंचमी को मानते हैं.

कहते हैं, गुरु बल्लभाचार्य, अपने शिष्य सूरदास को अपने साथ गोवर्धन पर्वत मंदिर पर ले जाते थे, जहां वे श्रीनाथ जी की सेवा करते थे, और हर दिन नए पद बनाकर इकतारे के माध्यम से उसका गायन करते थे. बल्लभाचार्य ने ही सूरदास को 'भागवत लीला' का गुणगान करने की सलाह दी. इससे पहले वह केवल दैन्य भाव से विनय के पद रचा करते थे.

सूरदास की कृष्ण भक्ति के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं. एक कथा के मुताबिक, एक बार सूरदास कृष्ण की भक्ति में इतने डूब गए थे कि वे एक कुंए जा गिरे, जिसके बाद भगवान कृष्ण ने खुद उनकी जान बचाई और उनके अंतःकरण में दर्शन भी दिए. कहा तो यहां तक जाता है कि जब कृष्ण ने सूरदास की जान बचाई तो उनकी नेत्र ज्योति लौटा दी थी. इस तरह सूरदास ने इस संसार में सबसे पहले अपने आराध्य, प्रिय कृष्ण को ही देखा था.

कहते हैं कृष्ण ने सूरदास की भक्ति से प्रसन्न होकर जब उनसे वरदान मांगने को कहा, तो सूरदास ने कहा कि मुझे सब कुछ मिल चुका है, आप फिर से मुझे अंधा कर दें. वह कृष्ण के अलावा अन्य किसी को देखना नहीं चाहते थे.

महाकवि सूरदास के भक्तिमय गीत हर किसी को मोहित करते हैं. उनकी पद-रचना और गान-विद्या की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई थी. साहित्यिक हलकों में इस बात का जिक्र किया जाता है कि अकबर के नौ रत्नों में से एक संगीतकार तानसेन ने सम्राट अकबर और महाकवि सूरदास की मथुरा में मुलाकात भी करवाई थी.

सूरदास की रचनाओं में कृष्ण के प्रति अटूट प्रेम और भक्ति का वर्णन मिलता है. इन रचनाओं में वात्सल्य रस, शांत रस, और श्रंगार रस शामिल है. सूरदास ने अपनी कल्पना के माध्यम से कृष्ण के अदभुत बाल्य स्वरूप, उनके सुंदर रुप, उनकी दिव्यता वर्णन किया है. इसके अलावा सूरदास ने उनकी लीलाओं का भी वर्णन किया है.

सूरदास की रचनाओं में इतनी सजीवता है, जैसे लगता है उन्होंने समूची कृष्ण लीला अपनी आंखों से देखी हो. महाकवि सूरदास द्वारा लिखित 5 ग्रंथों में सूर सागर, सूर सारावली और साहित्य लहरी, नल-दमयन्ती और ब्याहलो शामिल हैं. सूरसागर उनका सबसे मशहूर ग्रंथ है. इस ग्रंथ में सूरदास ने श्री कृष्ण की लीलाओं का बखूबी वर्णन किया है. इस ग्रंथ में सवा लाख पदों का संग्रह होने की बात कही जाती हैं, लेकिन अब केवल सात से आठ हजार पद ही बचे हैं. सूरसागर की 1656 से लेकर 19वीं शताब्दी के बीच तक सिर्फ 100 प्रतियां ही मिल पाई हैं. सूरसागर के 12 अध्यायों में से 11 संक्षिप्त रूप में और 10वां स्कन्ध काफी विस्तार से मिलता है.

सूरसारावली भी सूरदास का एक प्रमुख ग्रंथ है. इसमें कुल 1107 छंद हैं. कहते हैं कि सूरदास जी ने इस ग्रंथ की रचना 67 साल की उम्र में की थी. यह पूरा ग्रंथ एक 'वृहद् होली' गीत के रूप में रचा गया था. इस ग्रंथ में भी कृष्ण के प्रति उनका अलौकिक प्रेम दिखता है. साहित्यलहरी भी सूरदास का अन्य प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ है. 

साहित्यलहरी 118 पदों की एक लघुरचना है. इस ग्रंथ की खास बात यह है कि इसके आखिरी पद में सूरदास ने अपने वंशवृक्ष के बारे में बताया है, जिसके अनुसार सूरदास का नाम 'सूरजदास' है और वह चंदबरदाई के वंशज हैं. सूरदास जी का यह ग्रंथ श्रृंगार रस की कोटि में आता है. नल-दमयन्ती सूरदास की कृष्ण भक्ति से अलग एक महाभारतकालीन नल और दमयन्ती की कहानी है, तो ब्याहलो सूरदास भी एक अन्य मशहूर ग्रन्थ हैं. कहा जाता है कि सूरदास 100 वर्ष से अधिक उम्र तक जीवित रहे. 

3. अक्षय तृतीया/परशुराम जी- 
 वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया है. लोग इस तिथि को अक्षय तृतीया के नाम से भी जानते हैं. लेकिन यह तिथि एक और मायने में बेहद खास है. इस दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार भगवान परशुराम का भी जन्म हुआ था. भगवान परशुराम ऋषि जमदग्नि और रेणुका के पुत्र थे. परशुराम को न्याय का देवता माना जाता है. वह अपने माता-पिता के आज्ञाकारी पुत्र थे. बावजूद इसके उन्होंने अपनी माता की गर्दन काट दी थी. आइए जानते हैं आखिर क्यों परशुराम जी को अपनी मां की गर्दन काटनी पड़ी और फिर क्या हुआ उनके साथ.

ब्रह्रावैवर्त पुराण के अनुसार, श्रीहरि विष्णु के आठवें अवतार भगवान परशुराम माता रेणुका और ॠषि जमदग्नि की चौथी संतान थे. शस्त्र विद्या और शस्त्रों के ज्ञाता भगवान परशुराम को एक बार उनके पिता ने आज्ञा दी कि वो अपनी मां का वध कर दे. भगवान परशुराम बेहद आज्ञाकारी पुत्र थे. उन्होंने अपने पिता का आदेश पाते ही तुरंत अपने परशु से अपनी मां का सिर उनके धड़ से अलग कर दिया.

अपनी आज्ञा का पालन होते देख भगवान परशुराम के पिता ऋषि जमदग्नि अपने पुत्र से बेहद प्रसन्न हुए. पिता को प्रसन्न्  देख परशुराम ने अपने पिता से मां रेणुका को पुनः जीवित करने का आग्रह किया.

ज्योतिषाचार्य पंडित अरुणेश कुमार शर्मा ने बताया कि परशुराम भगवान विष्णु के आवेशावतार माने जाते हैं. उन्होंने परशुराम द्वारा माता रेणुका वध की कथा को विस्तार से बताते हुए कहा कि एकबार ऋषि पत्नी सरोवर में स्नान के लिए गई हुई थी. संयोग से वहां राजा चित्ररथ नौकाविहार कर रहे थे. राजा को देख ऋषिपत्नी के हृदय में विकार उत्पन्न हो गया और वह वहां से उसी मनोदशा में आश्रम लौट आईं.
आश्रम में ऋषि जमदग्नि ने जब पत्नी की यह विकारग्रस्त दशा देखी तो उन्हें सब ज्ञात हो गया. जिसकी वजह से ऋषि बेहद क्रोधित हो गए. उन्होंने पहले परशुराम के अग्रजों को माता के वध का आदेश दिया. लेकिन मां से मोहवश उनके किसी भी पुत्र ने उनकी इस आज्ञा का पालन नहीं किया. लेकिन जब पिता ने मां का वध करने के लिए परशुराम से कहा तो उन्होंने पिता की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया.

इस पर ऋषि ने आज्ञा न मानने वाले पुत्रों को विवेक विचार खो देने का श्राप दिया. परशुराम से प्रसन्न होकर उन्होंने उसे मनचाहा वर मांगने के लिए कहा. इस पर परशुराम ने अपने पिता से माता को पुनःजीवित करने का वरदान मांगकर अपनी मां को नवजीवन प्रदान किया. अपने पुत्र की तीव्र बुद्धि देखकर अतिप्रसन्न ऋषिपिता ने परशुराम को दिक्दिगन्त तक ख्याति अर्जित करने और समस्त शास्त्र और शस्त्र का ज्ञाता होने का आशीर्वाद दिया.

लेकिन परशुराम जी ने पिता के कहने पर अपनी मां का वध किया था. जिसकी वजह से उन्हें मातृ हत्या का पाप भी लगा. उन्हें अपने इस पाप से मुक्ति भगवान शिव की कठोर तपस्या करने के बाद मिली. भगवान शिव ने परशुराम को  मृत्युलोक के कल्याणार्थ परशु अस्त्र प्रदान किया, यही वजह थी कि वो बाद में परशुराम कहलाए.  

4.  कैसे हुआ यदुवंश का नाश, इसके बाद क्या किया बलराम और श्रीकृष्ण ने?-महाभारत युद्ध में कौरवों के मारे जाने पर श्रीकृष्ण को उस लड़ाई का जिम्मेदार मानते हुए गांधारी ने श्राप दिया था कि तुम भी अपने परिवार और कुल के लोगों के साथ मारे जाओगे। महाभारत युद्ध के बाद इस श्राप के कारण ही द्वारका में भयंकर अपशकुन होने लगे थे। उस समय श्रीकृष्ण ने देखा कि ग्रहों की वैसी ही अशुभ स्थिति बन रही है जैसी महाभारत युद्ध के समय बनी थी।जिससे श्रीकृष्ण समझगए थे कि गांधारी के श्राप की वजह से यदुवंश खत्म होने वाला है।महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद गांधारी ने क्रोधित होकर श्रीकृष्ण को श्राप दिया था कि आज से छत्तीस साल बाद तुम भी अपने परिजनों व कुटुंबियों के साथ मारे जाओगे। ये बात तो लगभग सभी जानते हैं, लेकिन यदुवंशियों का नाश कैसे हुआ, ये बात बहुत कम लोग जानते हैं। महाभारत के अनुसार, जानिए कैसे हुआ था यदुवंशियों का विनाश-
ऋषियों ने क्यों दिया था सांब को श्राप?महाभारत युद्ध के 36 साल बाद एक दिन द्वारिका में महर्षि विश्वामित्र, कण्व, देवर्षि नारद आदि आए। वहां कुछ नवयुवकउनके साथ मजाक करने लगे। वे श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेष में ऋषियों के पास ले गए और कहा कि ये स्त्री गर्भवती है। इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा? क्रोधित होकर ऋषियों ने श्राप दिया कि- श्रीकृष्ण का यह पुत्र वृष्णि और अंधकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए एक लोहे का मूसल उत्पन्न करेगा। श्रीकृष्ण को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कहा कि ये बात अवश्य सत्य होगी।द्वारिका में होने लगे थे भयंकर अपशकुन मुनियों के श्राप के प्रभाव से दूसरे दिन ही सांब ने मूसल उत्पन्न किया। राजा उग्रसेन ने उस मूसल को चूरा कर समुद्र में डलवा दिया। इसके बाद उन्होंने घोषणा करवाई कि आज से कोई भी नागरिक अपने घर में मदिरा तैयार नहीं करेगा। जो ऐसा करेगा, उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। इसके बाद द्वारका में भयंकर अपशकुन होने लगे। प्रतिदिन आंधी चलने लगी। श्रीकृष्ण ने जब ये सब देखा तो उन्होंने सोचा कि माता गांधारी का श्राप सत्य होने का समय आ गया है। उन्होंने देखा कि इस समय ग्रहों का वैसा ही योग बन रहा है जैसा महाभारत के युद्ध के समय बना था।ऐसे हुआ यदुवंशियों का नाश-गांधारी के श्राप को सत्य करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण सभी को साथ लेकर प्रभास तीर्थ में निवास करने लगे। एक दिन किसी बात पर सात्यकि और कृतवर्मा में विवाद हो गया। विवाद इतना बढ़ा कि अंधकवंशियों के हाथों सात्यकि और प्रद्युम्न मारे गए। क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने घास उखाड़ ली। हाथ में आते ही वह घास वज्र के समान भयंकर लोहे का मूसल बन गई।उस मूसल से श्रीकृष्ण सभी का वध करने लगे। जो कोई भी वह घास उखाड़ता वह भयंकर मूसल में बदल जाती (ऐसा ऋषियों के श्राप के कारण हुआ था)। इस तरह श्रीकृष्ण और बलराम को छोड़कर सभी यदुवंशी मारे गए। अंत में बलराम समाधि में बैठ गए। उनके मुख से भगवान शेषनाग निकले और समुद्र में समा गए। अंत में भगवान श्रीकृष्ण ने जरा नाम के शिकारी के हाथों मारे गए। इस तरह यदुवंश का नाश हो गया . 

5. भगवान जगन्नाथ मंदिर --- 
भगवान कृष्ण ने जब देह छोड़ा तो उनका अंतिम संस्कार किया गया , उनका सारा शरीर तो पांच तत्त्व में मिल गया लेकिन उनका हृदय बिलकुल सामान्य एक जिन्दा आदमी की तरह धड़क रहा था और वो बिलकुल सुरक्षित था , उनका हृदय आज तक सुरक्षित है जो भगवान् जगन्नाथ की काठ की मूर्ति के अंदर रहता है और उसी तरह धड़कता है , ये बात बहुत कम लोग को पता है  
महाप्रभु का महा रहस्य
सोने की झाड़ू से होती है सफाई......। 
महाप्रभु जगन्नाथ (श्री कृष्ण) को कलियुग का भगवान भी कहते है.... पुरी(उड़ीसा) में जग्गनाथ स्वामी अपनी बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ निवास करते है... मगर रहस्य ऐसे है कि आजतक कोई न जान पाया
 
हर 12 साल में महाप्रभु की मूर्ती को बदला जाता है,उस समय पूरे पुरी शहर में ब्लैकआउट किया जाता है यानी पूरे शहर की लाइट बंद की जाती है। लाइट बंद होने के बाद मंदिर परिसर को crpf की सेना चारो तरफ से घेर लेती है...उस समय कोई भी मंदिर में नही जा सकता.मंदिर के अंदर घना अंधेरा रहता है...पुजारी की आँखों मे पट्टी बंधी होती है...पुजारी के हाथ मे दस्ताने होते है..वो पुरानी मूर्ती से "ब्रह्म पदार्थ" निकालता है और नई मूर्ती में डाल देता है...ये ब्रह्म पदार्थ क्या है आजतक किसी को नही पता...इसे आजतक किसी ने नही देखा. ..हज़ारो सालो से ये एक मूर्ती से दूसरी मूर्ती में ट्रांसफर किया जा रहा है...
 
ये एक अलौकिक पदार्थ है जिसको छूने मात्र से किसी इंसान के जिस्म के चिथड़े उड़ जाए... इस ब्रह्म पदार्थ का संबंध भगवान श्री कृष्ण से है...मगर ये क्या है ,कोई नही जानता... ये पूरी प्रक्रिया हर 12 साल में एक बार होती है...उस समय सुरक्षा बहुत ज्यादा होती है.मगर आजतक कोई भी पुजारी ये नही बता पाया की महाप्रभु जगन्नाथ की मूर्ती में आखिर ऐसा क्या है  
 कुछ पुजारियों का कहना है कि जब हमने उसे हाथमे लिया तो खरगोश जैसा उछल रहा था...आंखों में पट्टी थी...हाथ मे दस्ताने थे तो हम सिर्फ महसूस कर पाए.आज भी हर साल जगन्नाथ यात्रा के उपलक्ष्य में सोने की झाड़ू से पुरी के राजा खुद झाड़ू लगाने आते है.भगवान जगन्नाथ मंदिर के सिंहद्वार से पहला कदम अंदर रखते ही समुद्र की लहरों की आवाज अंदर सुनाई नहीं देती, जबकि आश्चर्य में डाल देने वाली बात यह है कि जैसे ही आप मंदिर से एक कदम बाहर रखेंगे, वैसे ही समुद्र की आवाज सुनाई देंगी.
 
   आपने ज्यादातर मंदिरों के शिखर पर पक्षी बैठे-उड़ते देखे होंगे, लेकिन जगन्नाथ मंदिर के ऊपर से कोई पक्षी नहीं गुजरता। 
झंडा हमेशा हवा की उल्टी दिशामे लहराता है. दिन में किसी भी समय भगवान जगन्नाथ मंदिर के मुख्य शिखर की परछाई नहीं बनती।भगवान जगन्नाथ मंदिर के 45 मंजिला शिखर पर स्थित झंडे को रोज बदला जाता है, ऐसी मान्यता है कि अगर एक दिन भी झंडा नहीं बदला गया तो मंदिर 18 सालों के लिए बंद हो जाएगा . 
इसी तरह भगवान जगन्नाथ मंदिर के शिखर पर एक सुदर्शन चक्र भी है, जो हर दिशा से देखने पर आपके मुंह आपकी तरफ दीखता है।भगवान जगन्नाथ मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए मिट्टी के 7 बर्तन एक-दूसरे के ऊपर रखे जाते हैं, जिसे लकड़ी की आग से ही पकाया जाता है, इस दौरान सबसे ऊपर रखे बर्तन का पकवान पहले पकता है। 
भगवान जगन्नाथ मंदिर में हर दिन बनने वाला प्रसाद भक्तों के लिए कभी कम नहीं पड़ता, लेकिन हैरान करने वाली बात ये है कि जैसे ही मंदिर के पट बंद होते हैं वैसे ही प्रसाद भी खत्म हो जाता है। 
ये सब बड़े आश्चर्य की बात हैं.     ? जय श्री जगन्नाथ ?
 
6.  सोमनाथ ज्योतिर्लिंग --  चातुर्मास में भगवान शिव की उपासना विशेष फलदायी मानी गई है. चातुर्मास में सावन का संपूर्ण महीना भगवान शिव को समर्पित है. सावन के महीने में ज्योतिर्लिंग के दर्शन का विशेष महत्व माना गया है- 
 
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारंममलेश्वरम्॥
परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने॥
वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे।
हिमालये तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये॥
एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रात: पठेन्नर:।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरणेन विनश्यति॥
एतेशां दर्शनादेव पातकं नैव तिष्ठति।
कर्मक्षयो भवेत्तस्य यस्य तुष्टो महेश्वरा:॥ 
 
      मान्यता है कि  सावन के महीने में जो व्यक्ति प्रतिदिन प्रात: इन ज्योतिर्लिंग के नामों का जाप करता है, उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं. लोक परलोक दोनों में इसका लाभ प्राप्त होता है. सभी प्रकार की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. किसी भी कार्य को करने से पहले यदि सभी ज्योतिर्लिंग का नाम लिया जाता है तो उस कार्य के सफल होने की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं. साथ ही भगवान शिव का आर्शीवाद प्राप्त होता है.
 
सोमनाथ ज्योतिर्लिंग ---
     यह पहला ज्योतिर्लिंग है. जो कि गुजरात के काठियावाड़ स्थित प्रभास में विराजमान हैं. एक पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी नर लीला समाप्त की थी. माना जाता है कि सोमनाथ के शिवलिंग की स्थापना खुद चंद्रमा ने की थी. ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को विशेष महत्व प्रदान किया गया है. चंद्रमा द्वारा इस शिवलिंग को स्थापित किए जाने के कारण इसे सोमनाथ कहा जाता है.
 
पौराणिक कथा: चंद्रमा को मिली थी श्राप से मुक्ति
पौराणिक कथाओं के अनुसार प्रजापति दक्ष ने अपनी 27 कन्याओं का विवाह चंद्रमा के साथ किया था. रोहिणी दक्ष की सभी कन्याओं में से सबसे अधिक सुदर थी. चंद्रमा रोहिणी को अधिक प्रेम करते थे. इस बात से दक्ष की अन्य पुत्रियां रोहिणी से बैर रखने लगीं. जब यह बात प्रजापति दक्ष को पता चली तो उसने क्रोधित होकर चंद्रमा को धीरे- धीरे क्षीण (खत्म) होने का श्राप दे दिया. इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने चंद्रमा को प्रभास क्षेत्र जहां पर सोमनाथ का मंदिर है वहां पर भगवान शिव की तपस्या करने को कहा.

चंद्रमा ने सोमनाथ में शिवलिंग की स्थापना करके उनकी पूजा की. कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने शाप से मुक्त कर दिया और अमरत्व का वरदान दिया. शंकर जी के वरदान के कारण ही चंद्रमा कृष्ण पक्ष को एक-एक कला क्षीण (खत्म) होता है और शुक्ल पक्ष को एक-एक कला बढ़ता है और हर पूर्णिमा को पूर्ण रूप को प्राप्त होता है. पंचांग इसी आधार पर कार्य करता है. शाप से मुक्ति मिलने के बाद चंद्रमा ने भगवान शिव को माता पार्वती के साथ सोमनाथ में ही रहने की प्रार्थना की. तब से भगवान शिव सोमनाथ में ज्योतिर्लिंग के रूप में निवास करते हैं.
 
6.
?#️सम्राट_शांतनु ने विवाह किया एक मछवारे की पुत्री सत्यवती से।उनका बेटा ही राजा बने इसलिए भीष्म ने विवाह न करके,आजीवन संतानहीन रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की।
?सत्यवती के बेटे बाद में क्षत्रिय बन गए, जिनके लिए #भीष्म आजीवन अविवाहित रहे, क्या उनका शोषण होता होगा?
?#महाभारत लिखने वाले #वेदव्यास भी मछवारे थे, पर महर्षि बन गए, गुरुकुल चलाते थे वो।
?#विदुर, जिन्हें महा पंडित कहा जाता है वो एक दासी के पुत्र थे, #हस्तिनापुर के महामंत्री बने, उनकी लिखी हुई #विदुर_नीति, राजनीति का एक महाग्रन्थ है।
 
?भीम ने वनवासी हिडिम्बा से विवाह किया।
 
?श्री कृष्ण दूध का व्यवसाय करने वालों के परिवार से थे, 
 
?उनके भाई बलराम खेती करते थे, हमेशा हल साथ रखते थे।
 
?#यादव क्षत्रिय रहे हैं, कई प्रान्तों पर शासन किया और #श्री_कृष्ण सबके पूजनीय हैं, गीता जैसा ग्रन्थ विश्व को दिया।
 
?#श्री_राम के साथ वनवासी #निषादराज गुरुकुल में पढ़ते थे।
 
?उनके पुत्र लव कुश #महर्षि_वाल्मीकि के गुरुकुल में पढ़े जो वनवासी थे
 
✅️तो ये हो गयी #वैदिक_काल की बात, स्पष्ट है कोई किसी का शोषण नहीं करता था,सबको शिक्षा का अधिकार था, कोई भी पद तक पहुंच सकता था अपनी योग्यता के अनुसार।
 
?वर्ण सिर्फ काम के आधार पर थे वो बदले जा सकते थे, जिसको आज इकोनॉमिक्स में #डिवीज़न_ऑफ़_लेबर कहते हैं वो ही।
 
?प्राचीन भारत की बात करें, तो भारत के सबसे बड़े जनपद मगध पर जिस नन्द वंश का राज रहा वो जाति से नाई थे । 
 
?#नन्द_वंश की शुरुवात महापद्मनंद ने की थी जो की राजा के नाई थे। बाद में वो राजा बन गए फिर उनके बेटे भी, बाद में सभी क्षत्रिय ही कहलाये।
 
?उसके बाद मौर्य वंश का पूरे देश पर राज हुआ, जिसकी शुरुआत #चन्द्रगुप्त से हुई,जो कि एक मोर पालने वाले परिवार से थे और एक ब्राह्मण #चाणक्य ने उन्हें पूरे देश का सम्राट बनाया । 506 साल देश पर मौर्यों का राज रहा।
 
?फिर #गुप्त_वंश का राज हुआ, जो कि घोड़े का अस्तबल चलाते थे और घोड़ों का व्यापार करते थे।140 साल देश पर गुप्ताओं का राज रहा।
 
?केवल पुष्यमित्र शुंग के 36 साल के राज को छोड़ कर 92% समय प्राचीन काल में देश में शासन उन्ही का  रहा, जिन्हें आज दलित पिछड़ा कहते हैं तो शोषण कहां से हो गया? यहां भी कोई शोषण वाली बात नहीं है।
 
?फिर शुरू होता है मध्यकालीन भारत का समय जो सन 1100- 1750 तक है, इस दौरान अधिकतर समय, अधिकतर जगह मुस्लिम आक्रमणकारियो का समय रहा और कुछ स्थानों पर उनका शासन भी चला।
 
?अंत में मराठों का उदय हुआ, बाजी राव पेशवा जो कि ब्राह्मण थे, ने गाय चराने वाले गायकवाड़ को गुजरात का राजा बनाया, चरवाहा जाति के होलकर को मालवा का राजा बनाया।
 
?#अहिल्या_बाई होलकर खुद बहुत बड़ी शिवभक्त थी। ढेरों मंदिर गुरुकुल उन्होंने बनवाये। 
 
?#मीरा_बाई जो कि राजपूत थी, उनके गुरु एक चर्मकार #रविदास थे और रविदास के गुरु ब्राह्मण #रामानंद थे|।
 
✅️यहां भी शोषण वाली बात कहीं नहीं है।
 
?मुग़ल काल से देश में गंदगी शुरू हो गई और यहां से #पर्दा_प्रथा, गुलाम प्रथा, बाल विवाह जैसी चीजें शुरू होती हैं।
 
?1800 -1947 तक अंग्रेजो के शासन रहा और यहीं से जातिवाद शुरू हुआ । जो उन्होंने #फूट_डालो और #राज_करो की नीति के तहत किया। 
 
?अंग्रेज अधिकारी निकोलस डार्क की किताब "#कास्ट_ऑफ़_माइंड" में मिल जाएगा कि कैसे अंग्रेजों ने जातिवाद, छुआछूत को बढ़ाया और कैसे स्वार्थी भारतीय नेताओं ने अपने स्वार्थ में इसका राजनीतिकरण किया।
 
?इन हजारों सालों के इतिहास में देश में कई विदेशी आये जिन्होंने भारत की सामाजिक स्थिति पर किताबें लिखी हैं, जैसे कि मेगास्थनीज ने इंडिका लिखी, फाहियान,  ह्यू सांग और अलबरूनी जैसे कई और लेखको में से किसी ने भी नहीं लिखा की यहां किसी का शोषण होता था।
 
?#योगी_आदित्यनाथ जो ब्राह्मण नहीं हैं, गोरखपुर मंदिर के महंत  हैं, पिछड़ी जाति की उमा भारती महा मंडलेश्वर रही हैं।

7. श्मशान में जब महर्षि दधीचि के मांसपिंड का दाह संस्कार हो रहा था तो उनकी पत्नी अपने पति का वियोग सहन नहीं कर पायीं और पास में ही स्थित विशाल पीपल वृक्ष के कोटर में 3 वर्ष के बालक को रख स्वयम् चिता में बैठकर सती हो गयीं। इस प्रकार महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी का बलिदान हो गया किन्तु पीपल के कोटर में रखा बालक भूख प्यास से तड़प तड़प कर चिल्लाने लगा।जब कोई वस्तु नहीं मिली तो कोटर में गिरे पीपल के गोदों(फल) को खाकर बड़ा होने लगा। कालान्तर में पीपल के पत्तों और फलों को खाकर बालक का जीवन येन केन प्रकारेण सुरक्षित रहा।
  एक दिन देवर्षि नारद वहाँ से गुजरे। नारद ने पीपल के कोटर में बालक को देखकर उसका परिचय पूंछा-
नारद- बालक तुम कौन हो ?
बालक- यही तो मैं भी जानना चाहता हूँ ।
नारद- तुम्हारे जनक कौन हैं ?
बालक- यही तो मैं जानना चाहता हूँ ।
   तब नारद ने ध्यान धर देखा।नारद ने आश्चर्यचकित हो बताया कि  हे बालक ! तुम महान दानी महर्षि दधीचि के पुत्र हो। तुम्हारे पिता की अस्थियों का वज्र बनाकर ही देवताओं ने असुरों पर विजय पायी थी। नारद ने बताया कि तुम्हारे पिता दधीचि की मृत्यु मात्र 31 वर्ष की वय में ही हो गयी थी।
बालक- मेरे पिता की अकाल मृत्यु का कारण क्या था ?
नारद- तुम्हारे पिता पर शनिदेव की महादशा थी।
बालक- मेरे ऊपर आयी विपत्ति का कारण क्या था ?
नारद- शनिदेव की महादशा।
  इतना बताकर देवर्षि नारद ने पीपल के पत्तों और गोदों को खाकर जीने वाले बालक का नाम पिप्पलाद रखा और उसे दीक्षित किया।
नारद के जाने के बाद बालक पिप्पलाद ने नारद के बताए अनुसार ब्रह्मा जी की घोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया। ब्रह्मा जी ने जब बालक पिप्पलाद से वर मांगने को कहा तो पिप्पलाद ने अपनी दृष्टि मात्र से किसी भी वस्तु को जलाने की शक्ति माँगी।ब्रह्मा जी से वर्य मिलने पर सर्वप्रथम पिप्पलाद ने शनि देव का आह्वाहन कर अपने सम्मुख प्रस्तुत किया और सामने पाकर आँखे खोलकर भष्म करना शुरू कर दिया।शनिदेव सशरीर जलने लगे। ब्रह्मांड में कोलाहल मच गया। सूर्यपुत्र शनि की रक्षा में सारे देव विफल हो गए। सूर्य भी अपनी आंखों के सामने अपने पुत्र को जलता हुआ देखकर ब्रह्मा जी से बचाने हेतु विनय करने लगे।अन्ततः ब्रह्मा जी स्वयम् पिप्पलाद के सम्मुख पधारे और शनिदेव को छोड़ने की बात कही किन्तु पिप्पलाद तैयार नहीं हुए।ब्रह्मा जी ने एक के बदले दो वर्य मांगने की बात कही। तब पिप्पलाद ने खुश होकर निम्नवत दो वरदान मांगे-
 
1- जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा।जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।
 
2- मुझ अनाथ को शरण पीपल वृक्ष ने दी है। अतः जो भी व्यक्ति सूर्योदय के पूर्व पीपल वृक्ष पर जल चढ़ाएगा उसपर शनि की महादशा का असर नहीं होगा।
 
  ब्रह्मा जी ने तथास्तु कह वरदान दिया।तब पिप्पलाद ने जलते हुए शनि को  अपने ब्रह्मदण्ड से उनके पैरों पर आघात करके उन्हें मुक्त कर दिया । जिससे शनिदेव के पैर क्षतिग्रस्त हो गए और वे पहले जैसी तेजी से चलने लायक नहीं रहे।अतः तभी से शनि "शनै:चरति य: शनैश्चर:" अर्थात जो धीरे चलता है वही शनैश्चर है, कहलाये और शनि आग में जलने के कारण काली काया वाले अंग भंग रूप में हो गए।
       सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है।आगे चलकर पिप्पलाद ने प्रश्न उपनिषद की रचना की,जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है.
 
8. वाल्मिकी रामायण में सीता माता द्वारा #पिंडदान देकर राजा दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है
वनवास के दौरान भगवान राम, लक्ष्मण और माता सीता पितृ पक्ष के वक़्त श्राद्ध करने के लिए गया धाम पहुंचे
वहाँ ब्राह्मण द्वारा बताए श्राद्ध कर्म के लिए आवश्यक सामग्री जुटाने हेतु श्री राम और लक्ष्मण नगर की ओर चल दिए,
 
ब्राह्मण देव ने माता सीता को आग्रह किया कि पिंडदान का कुतप समय निकलता जा रहा है
यह सुनकर सीता जी की व्यग्रता भी बढ़ती जा रही थी क्योंकि
श्री राम और लक्ष्मण अभी नहीं लौटे थे
इसी उपरांत दशरथ जी की आत्मा ने उन्हें आभास कराया की पिंड दान का वक़्त बीता जा रहा है
यह जानकर माता सीता असमंजस में पड़ गई
तब माता सीता ने समय के महत्व को समझते हुए यह निर्णय लिया कि वह स्वयं अपने ससुर राजा दशरथ का पिंडदान करेंगी,
 
उन्होंने फल्गू नदी के साथ साथ वहाँ उपसथित वटवृक्ष, कौआ, तुलसी, ब्राह्मण और गाय को साक्षी मानकर स्वर्गीय राजा दशरथ का का पिंडदान पुरी विधि विधान के साथ किया
इस क्रिया के उपरांत जैसे ही उन्होंने हाथ जोड़कर प्रार्थना की तो राजा दशरथ ने माता सीता का पिंड दान स्वीकार किया
माता सीता को इस बात से प्रफुल्लित हुई कि उनकी पूजा दशरथ जी ने स्वीकार कर ली है
पर वह यह भी जानती थी कि प्रभु राम इस बात को नहीं मानेंगे क्योंकि पिंड दान पुत्र के बिना नहीं हो सकता है,
 
थोड़ी देर बाद भगवान राम और लक्ष्मण सामग्री लेकर आए और पिंड दान के विषय में पूछा
तब माता सीता ने कहा कि समय निकल जाने के कारण मैंने स्वयं पिंडदान कर दिया
प्रभु राम को इस बात का विश्वास नहीं हो रहा था कि बिना पुत्र और बिना सामग्री के पिंडदान कैसे संपन्न और स्वीकार हो सकता है
तब सीता जी ने कहा कि वहाँ
उपस्थित फल्गू नदी, तुलसी, कौआ, गाय, वटवृक्ष और ब्राह्मण उनके द्वारा किए गए श्राद्धकर्म की गवाही दे सकते हैं,
 
भगवान राम ने जब इन सब से पिंडदान किये जाने की बात सच है या नहीं यह पूछा,
तब फल्गू नदी, गाय, कौआ, तुलसी और ब्राह्मण पांचों ने प्रभु राम का क्रोध देखकर झूठ बोल दिया कि माता सीता ने कोई पिंडदान नहीं किया
सिर्फ वटवृक्ष ने सत्य कहा कि माता सीता ने सबको साक्षी रखकर विधि पूर्वक राजा दशरथ का पिंड दान किया
पांचों साक्षी द्वारा झूठ बोलने पर माता सीता ने क्रोधित होकर उन्हें आजीवन श्राप दिया,
 
फल्गू नदी को श्राप दिया कि वोह सिर्फ नाम की नदी रहेगी,
उसमें पानी नहीं रहेगा
इसी कारण फल्गू नदी आज भी गया में सूखी है
गाय को श्राप दिया कि गाय पूजनीय होकर भी सिर्फ उसके पिछले हिस्से की पूजा की जाएगी और गाय को खाने के लिए दर बदर भटकना पड़ेगा
आज भी हिन्दू धर्म में गाय के सिर्फ पिछले हिस्से की पूजा की जाती है,
 
माता सीता ने ब्राह्मण को कभी भी संतुष्ट न होने और कितना भी मिले उसकी दरिद्रता हमेशा बनी रहेगी का श्राप दिया
इसी कारण ब्राह्मण कभी दान दक्षिणा के बाद भी संतुष्ट नहीं होते हैं सीताजी ने तुलसी को श्राप दिया कि वह कभी भी गया कि मिट्टी में नहीं उगेगी
यह आज तक सत्य है कि गया कि मिट्टी में तुलसी नहीं फलती
और कौवे को हमेशा लड़ झगड कर खाने का श्राप दिया था
अतः कौआ आज भी खाना अकेले नहीं खाता है,
 
सीता माता द्वारा दिए गए इन श्रापों का प्रभाव आज भी इन पांचों में देखा जा सकता है,
जहाँ इन पांचों को श्राप मिला वहीं सच बोलने पर माता सीता ने
वट वृक्ष को आशीर्वाद दिया कि उसे लंबी आयु प्राप्त होगी
और वह दूसरों को छाया प्रदान करेगा तथा पतिव्रता स्त्री उनका स्मरण करके अपने पति की दीर्घायु की कामना करेगी
 जय सियाराम ?


 

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