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Movie Story

1. भीष्म पितामह बाणों की शैया पर लेटे हुए हैं। वो भगवान श्री कृष्ण से पूछते हैं कि उनको ऐसी सजा क्यों मिली।
भगवान श्री कृष्ण उन्हें बताते हैं कि हर मनुष्य को उसके पिछले जन्म के हिसाब से फल मिलता है। आप पिछले जन्म में महावत थे। आपने एक छिपकली को काँटों के ऊपर फेंक दिया था।
उसका शरीर भी काँटों की चुभन में तड़फा था। वही सजा आपको मिली है.
 
भगवान श्री कृष्ण वन में विश्राम कर रहे हैं। एक शिकारी को उनकी पैर में लगी मणि दिखती है, उसे भगवान नहीं दिखते। शिकारी मणि के लोभ में तीर छोड़ देता है। तीर भगवान को लगता है. शिकारी जब नजदीक आता है  तो उसे पता चलता है। वो भगवान से माफ़ी मांगता है। और अपने आप को कसूरवार मानता है। भगवान श्री कृष्ण  उसे समझाते हैं कि ये उसका कसूर नहीं बल्की ये सब कुछ पूर्व निर्धारित है। पिछले जन्म में जो हुआ था, वही फिर से दोहराया गया है। बस चरित्र बदल गये। उनको बताया कि वो पिछले जन्म में भगवान राम थे और शिकारी बाली थे। भगवान राम ने छिपकर बाली को तीर मारा था, आज शिकारी बने बाली ने भगवान कृष्ण बने भगवान राम को तीर मारा है। उसने पिछले जन्म का बदला ले लिया।
 
सनातन धर्म ग्रंथो के अनुसर पुनर्जन्म एक सच्चाई है। आत्मा बार-बार धरती पर आती है। और वर्तमान में जो भी फल व्यक्ति भोगता है वो पूर्व जन्म के अनुसार भोगता है। एक जन्म के कर्म का फल किसी दूसरे जन्म में भोगना पड़ता है।
 
हम कुछ अनसुनी कहानियों पर गौर करते हैं और देखते हैं कि कैसे इंसान के दो जन्मों का आपस में कनेक्शन होता है।
 
रानी पद्मावती / अलाउद्दीन खिलजी। (जो अगले जन्म में झाँसी की रानी और Hyuj Roz ) (1302-1303)

रानी पद्मावती को इतिहास में पद्मिनी के नाम से भी जाना जाता है
 
रानी पद्मावती जितनी सुंदर थीं उतनी ही बड़ी वीरांगना थीं
 
रानी पद्मावती का जन्म सिंहल देश यानी श्रीलंका में हुआ था
 
पद्मावती का विवाह चित्तौड़ के राजा रतन सेन से हुआ था
 
तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में चित्तौड़ की रानी थीं पद्मावती
 
पद्मावती की सुंदरता को सुनकर खिलजी ने किया चित्तौड़ पर हमला
 
अलाउद्दीन खिलजी के साथ युद्ध में हुई थी रतन सिंह की मौत
 
वीर सेनापति गोरा-बादल के साथ रानी पद्मावती ने भी लड़ा था युद्ध
 
राजा रतन सिंह के दरबार में राघव चेतन नाम का संगीतिज्ञ था। एक दिन राजा रतन सिंह को अपने इस संगीतिज्ञ के काला जादू करने की सच्चाई पता चली तो उन्होंने राघव को गधे पर बैठाकर पूरे राज्य में घुमाने की सजा दे दी। इस बेइज्जती से राघव आग बबूला हो गया था। उसने रतन सिंह से बदला लेने की ठानी। राघव ने अपने गलत मंसूबों को कामयाब करने के राजा रतन सिंह की पत्नी रानी पद्मावती के सौन्दर्य के बारे में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी को बता दिया। पद्मावती की सुंदरता का गुणगान सुन खिलजी ने उन्हें हासिल करने की ठान ली और वहीं से शुरु हो गया खिलजी और राजा रतन सिंह के बीच की लड़ाई। जिसके बाद राजा रतन सिंह और रानी पद्मावती दोनों को ही अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ी।
 
खिलजी को एक दरबारी बताता है कि महाराज मेवाड की रानी पद्मावती की सुंदरता अविश्वसनीय है।दुनिया में कोई उनसे सुंदर नहीं। देखने वाला बस देखता ही रह जाता है।
रानी की तारीफ सुनकर खिलजी बेचैन हो उठता है। उसके बारे में सोचता रहता  है। रानी को पाने के लिए तड़फ उठता है।
खिलजी अपने राजदूत के हाथों मेवाड में संदेश भेजता है कि वो रानी पद्मावती को देखना चाहता है। मेवाड के राजा रतन सिंह मना कर देते है।
खिलजी दोबारा संदेश भेजता है कि या तो युद्ध के लिए तैयार रहो या रानी पद्मावती का चेहरा दिखाओ। राजा रतन सिंह की सेना छोटी थी और वो अपने राज्य को युद्ध में नहीं झोंकना चाहते थे। उन्होंने अपने दरबारियों से सलाह-मशविरा किया, रानी पद्मावती से सलाह की। रानी पद्मावती चतुर, बहादुर और सुंदर थी। फैंसला हुआ कि रानी खिलजी के सामने नहीं जाएंगी। खिलजी सिर्फ शीशे में उनकी परछाई देख सकता है।
खिलजी तैयार हो गया और नियत समय पर उसे रानी की परछाई दिखाई गई। खिलजी रानी की सुन्दरता से मोहित हो गया। उसने धोखे से पलट कर रानी को देखना चाहा लेकिन रानी अपने स्थान से तुरंट हट चुकी थी। वो तिलमिला उठा. लेकिन उसने जाहिर नहीं होने दिया और राजा रतन सिंह को दोस्त बना लिया। उसने मन ही मन में एक साजिश रच ली। राजा रतन सिंह को उसने अपने दरबार में शाही भोजन पर आमंत्रित किया।
राजा रतन सिंह ने निमंत्रण स्वीकार कर लिया, वो उसके पीछे की साजिश को नहीं जानते थे।
राजा रतन सिंह खिलजी के किले में प्रवेश करते ही बंदी बना लिये गये।
खिलजी ने अब रानी पद्मावती को संदेश भेजा कि राजा को बंदी बना लिया गया है। रानी अपने आप को खिलजी के हवाले कर दे तो राजा को छोड़ दिया जायेगा। रानी ने भी एक योजना बनाई और शर्त  रखी कि उनके साथ उनके महल की दासिया भी खिलजी के महल में जाएगी।
नियत दिन राजा रतन सिंह और रानी पद्मावती की अदला बदली हो गई। राजा रतन सिंह अपने किले में पहुँच गये। रानी के साथ दासियों के भेष में सैनिक थे। खिलजी के सैनिको और रानी के सैनिको में युद्ध हुआ। सभी सैनिक रानी सहित खिलजी के किले से सुरक्षित मेवाड  पहुंच गए। खिलजी तिलमिला उठा. उसने मेवाड किले के चारो तरफ घेराबन्दी कर दी। 6 महीने तक वो किले के बाहर डेरा जमाए बैठा रहा। मेवाड किले का सारा अनाज ख़त्म हो गया। युद्ध के सिवा कोई चारा नहीं बचा. मेवाड की सेना युद्ध के लिए किले से बाहर निकली। रानियों ने जोहर की तैयारी शुरू कर दी। दोनों सेनाओ में भीषण युद्ध हुआ। मेवाड के सैनिक बहादुरी से लड़े, लेकिन संख्या में कम थे वो युद्ध जीत नहीं पाए और अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। खिलजी किले में पहुंचे तो उसे किला सुनसान मिला। रानी समेत सभी औरत जोहर कर चुकी थी। वो हाथ मलता रहा.
 
अगला जन्म झाँसी की रानी / अंग्रेज़ ह्यूज रोज़ 
(जन्म 19 नवंबर 1828 मृत्यु 18 जून 1858) 29 साल की उम्र में मृत्यु । 14 साल की उमर में शादी।
 
झाँसी के महाराज की मृत्यु के बाद राज्य की बागडोर छोटी सी उमर में मनु संभालती है। उनका गोद लिया हुआ बच्चा बहुत छोटा है।
 
अंग्रेज़ो (लॉर्ड डलहौजी ) की नज़र झाँसी राज्य को हड़पने की है। वो झाँसी में अपना राजदूत भेजते हैं।
 
दूत सभा में अंग्रेज़ो का संदेश सुनाता है। रानी साहिबा राज्य का कोई उत्तराधिकारी नहीं है, गोद लिया हुआ बच्चा हमारी नीतियों के हिसाब से उत्तराधिकारी नहीं बन सकता। और कोई महिला भी राज्य नहीं चला सकती। इसलिए झाँसी को अंग्रेजी राज्य में विलय किया जाए। आपको पेंशन और मान सम्मान मिलता रहेगा।
 
झाँसी की रानी कहती हैं कि हम अँग्रेज़ों को झाँसी की एक इंच ज़मीन भी नहीं देंगे।
 
अंग्रेजों का हमला निश्चित था. रानी ने अपनी सेना मजबूत की, पड़ोसी राज्यो से सहयोग मांगा। ग्वालियर के सिंधियाओं ने सहयोग देने से मना कर दिया।
 
1857 की क्रांति का बिगुल बज चूका था।  पूरे देश में एक ही दिन क्रांति करने की योजना थी। रानी साहिबा, त्याता टोपे, नाना साहेब सबने तैयारियां कर रखी थी। दुर्भाग्य से क्रांति की शुरुआत समय से पहले हो गई। अंग्रेजों ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया।
 
 झाँसी की सेना, त्याता टोपे, रानी, नाना साहब सब खूब लड़े लेकिन अंग्रेजों ने किले पर जीत हासिल कर ली। रानी को किला छोड़ कर भागना पड़ा। रानी साहिबा अपने बच्चे को पीठ पर बाँधकर युद्ध लड़ती थी। ह्यूज रोज़  के नेतृत्व में अँग्रेज़ों ने झाँसी पर अधिकार कर लिया।
 
रानी साहिबा ने जंगल में अपनी सेना संगठित की और 1858 में ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। ग्वालियर के राजा हार गये। ग्वालियर राज्य पर रानी का अधिकार हो गया। 18 जून को अंग्रेजो से रानी साहिबा की आखिरी लड़ाई हुई। घमासान युद्ध हुआ. रानी साहिबा ने अनेक अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया। रानी साहिबा ने महिलाओं को भी प्रशिक्षित किया था, उन्हें भी सेना में शामिल किया था। सभी महिलाएं खूब लड़ीं, दुश्मनों को मौत के घाट उतारा और बलिदान हो गई.. अंत में रानी भी वीरगति को प्राप्त हुई. कैप्टन ह्यूरोज की युद्ध योजना के चलते आखिरकार रानी लक्ष्मीबाई घिर गईं। शहर के रामबाग तिराहे से शुरू हुई आमने-सामने की जंग में जख्मी रानी को एक गोली लगी और वह स्वर्णरेखा नदी के किनारे शहीद हो गईं। उनका शौर्य देखकर अंग्रेज़ भी हैरान थे, जनरल ह्यूज रोज़ लिखते हैं कि भारतीय सेना में एक ही मर्द था और वो थी झाँसी की रानी।

अंग्रेज सैनिकों से रानी की हार का प्रमुख कारण बुन्देली शासकों का साथ न देना भी रहा है। स्वराज क्रान्ति के लिए रानी के साथ खड़े अधिकांश बुन्देलों ने रानी से तब दूरियाँ बना लीं, जब स्वतन्त्रता संग्राम का शंखनाद हो गया और अंग्रेज सैनिकों ने रानी पर आक्रमण कर दिया। यह पूरी लड़ाई रानी ने अकेले ही लड़ी और वीरगति को प्राप्त हुई।
 
 
स्वतन्त्रता संग्राम की प्रथम दीपशिखा महारानी लक्ष्मी बाई वीरता और पराजय के बीच की कहानी जानने के लिए अतीत में झाँकना आवश्यक है। कहानी शुरू होती है सन् 1736 से, जब बुन्देलखण्ड पर महाराजा छत्रसाल का राज हुआ करता था। उस समय इलाहाबाद में मुगल सूबेदार मोहम्मद खाँ बंगश ने बुन्देलखण्ड की सियासत हथियाने के लिए हमला बोल दिया। आक्रमण ते़ज था, इसलिए महाराजा छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा से मदद माँगी। पेशवा ने सशर्त मदद स्वीकार करते हुए 21 ह़जार घुड़सवार सेना बुन्देलखण्ड में भेज दी, जिसने बंगश को कदम पीछे खींचने पर मजबूर कर दिया। इस मदद के बदले हुई संधि में पेशवा को बुन्देलखण्ड में लगान वसूली का अधिकार मिल गया, जिसका कुछ हिस्सा महाराजा छत्रसाल को दिया जाता था। कालान्तर में मराठाओं ने झाँसी किले पर कब़्जा कर लिया और लगान वसूली में सख्ती शुरू कर दी। बताते हैं- सवा सौ साल तक यहाँ शासन करने वाले मराठाओं ने लगान न देने वालों को जेलों में ठूँस दिया। कई बुन्देली राजाओं तक को जेल में डाला गया, जहाँ उनकी मृत्यु तक हो गई। लगभग 122 साल तक चला यह उत्पीड़न सन् 1857 में रानी लक्ष्मी बाई के सामने आया। बुन्देली शासकों का यह विरोध रानी द्वारा स्वराज क्रान्ति को लेकर समर्थन जुटाए जाने तक ऩजर नहीं आया। 1856 में स्वराज क्रान्ति को लेकर रानी के नेतृत्व में कालपी में हुई बैठक में ग्वालियर छोड़, बुन्देलखण्ड की लगभग सभी रियासतों के शासक शामिल हुए। यहाँ से रोटी, कमल व मोहर का वितरण शुरू करते हुए देशभर में स्वराज क्रान्ति की अलख जगाने का निर्णय लिया गया। पेशवा से रंगून और कश्मीर से कन्याकुमारी तक स्वराज की चिंगारी पहुँच गई और 31 मई 1857 को क्रान्ति की तारीख तय हो गई, लेकिन 10 मई 1857 को मेरठ छावनी में सैन्य विद्रोह हो गया और स्वराज क्रान्ति में विघ्न आ गया। इधर, रानी ने बुन्देली शासकों से सम्पर्क साधा और अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का बिगुल फूँकने में समर्थन माँगा। मुकुन्द मेहरोत्रा के अनुसार- बुन्देलखण्ड के अधिकांश शासकों ने लगान के दौरान मराठा उत्पीड़न पर नारा़जगी जताते हुए रानी का साथ देने से मना कर दिया। इसके बाद रानी ने 14वीं कैवलरी यूनिट झाँसी और 12वीं बंगाल इन्फैण्ट्रि सेना से सम्पर्क साधा और क्रान्ति के लिए तैयार कर लिया। 4 जून 1857 को सैन्य क्रान्ति हुई, जिसमें विद्रोही सैनिकों ने स्टार फोर्ट पर कब़्जा कर लिया।
 
- 4 जून 1857 की शाम झाँसी के सैनिक और असैनिक अंग्रेज कर्मचारियों ने परिवार सहित किले पर आकर आश्रय लिया। रानी ने अपने दीवान लक्ष्मण राव के माध्यम से कैप्टन स्कीन को सन्देश भिजवाया कि सभी अंग्रेज परिवारों को लेकर वह दतिया अथवा सागर चला जाए। आवश्यकता हो तो स्त्रियों और बच्चों को रानी महल में भेज दें। स्कीन ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। रानी ने 40 सिपाहियों को अंग्रेजों की देखरेख में लगा दिया। 6 जून 1857 को स्थिति बदली और कैप्टन डनलप और एन्साइन टेलर की विद्रोहियों ने हत्या कर दी, जिससे भयभीत होकर अंग्रेजों ने स्वयं को किले में कैद कर लिया। 7 जून 1857 को कैप्टन स्कीन ने समझ लिया कि आत्मसमर्पण के अलावा कोई रास्ता नहीं है, तो 8 जून 1857 को सफेद कपड़ा दिखाकर संधि का प्रस्ताव किया। झाँसी के वयोवृद्ध विशिष्ट नागरिक हाकिम सालेह महमूद के समक्ष अंग्रेजों ने सुरक्षित सागर भेजने की गुहार लगाई। इसके बाद स्कीन के नेतृत्व में 65 अंग्रेज दुर्ग से निकले, लेकिन झोकनबाग में उन्हें कत्ल कर दिया गया। उधर, झाँसी पर रानी का शासन कायम हो गया, जो लगभग 11 महीने तक रहा।
भाण्डेरी गेट से निकली रानी का कोंच में अंग्रेजी सेना से सामना हुआ, फिर कालपी में युद्ध हुआ। दोनों स्थानों पर रानी ने अंग्रेजों को परास्त किया। यहाँ से रानी ग्वालियर पहुँची। रानी के पहुँचते ही ग्वालियर में परिस्थितियाँ बदलीं और महाराजा सिंधिया ग्वालियर छोड़कर आगरा में अंग्रेजों की शरण में चले गए और ग्वालियर किले पर रानी का अधिपत्य हो गया। उधर, जनरल ह्यूरोज रानी का पीछा करते हुए ग्वालियर पहुँचा और मोरार पर कब़्जा जमा लिया, ताकि रानी तक मदद न पहुँच सके। यहाँ 17 जून 1858 को युद्ध में रानी को गोली लगी। जनरल डलहौजी को भेजे पत्र में हुसार रेजिमेण्ट ने रानी को गोली मारने का दावा किया, लेकिन इसकी पुष्टि नहीं हो पाई। बताया गया कि घायल रानी 17 जून 1858 को स्वामी गंगादास के आश्रम में आई और 18 जून 1858 को यहाँ प्राण त्यागे। यहीं उनका अन्तिम संस्कार किया गया। परन्तु अंग्रेजों को इसका कोई सुबूत नहीं मिल सका।
 रानी 22 वर्ष 6 माह 29 दिन तक जीवित रहीं। इस अल्प अवधि में उन्होंने शौर्य की अमिट गाथा लिख दी। उनकी आँखों में इतना तेज था कि फिरंगी भी आँख मिलाकर बात करने की हिम्मत नहीं कर पाता था।
जयाजीराव सिंधिया 1857 में ग्वालियर के नाम मात्र के महाराजा थे. उस समय राजकाज का जिम्मा अंग्रेजों के बनाए दिनकर राव राजवाड़े के पास था. जब विद्रोही ग्वालियर आए और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ मदद मांगी तो उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया. इसी के बाद जयाजीराव पर अंग्रेजों का साथ देने का आरोप लगा. दरअसल महाराज जनकोवी का कोई पुत्र नहीं था. जब उनकी मौत हो गई तो उनकी 13 साल की विधवा रानी ताराबाई के गोद लिए पुत्र जयाजीराव को अंग्रेजों ने राजा बना दिया. तब जयाजीराव की उम्र मात्र 8 साल थी.
 
 
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने 1857 की क्रांति ने अंग्रजों से लोहा लिया था. वो 18 जून 1958 को अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए शहीद हो गईं थी. युद्द के मैदान में मात्र 29 साल की उम्र में झांसी की रानी को वीरगति प्राप्त हुई थी. कहा जाता है कि अगर 1857 की लड़ाई में रानी लक्ष्मीबाई का यदि ग्वालियर के सिंधिया ने साथ दिया होता और रानी के साथ ग़द्दारी न की होती, तो शायद अंग्रेजों की जीत नहीं होती. इस मान्यता का जिक्र मशहूर कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता में भी मिलता है. उन्होंने लिखा, ‘अंग्रेजों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी रlजधानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी.”
 
 
जयाजीराव सिंधिया 1857 में ग्वालियर के नाम मात्र के महाराजा थे. उस समय राजकाज का जिम्मा अंग्रेजों के बनाए दिनकर राव राजवाड़े के पास था. जब विद्रोही ग्वालियर आए और उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ मदद मांगी तो उन्होंने अंग्रेजों का साथ दिया. इसी के बाद जयाजीराव पर अंग्रेजों का साथ देने का आरोप लगा. दरअसल महाराज जनकोवी का कोई पुत्र नहीं था. जब उनकी मौत हो गई तो उनकी 13 साल की विधवा रानी ताराबाई के गोद लिए पुत्र जयाजीराव को अंग्रेजों ने राजा बना दिया. तब जयाजीराव की उम्र मात्र 8 साल थी.
 
 
जयाजीराव के युवा होने पर अंग्रेजों ने 28 साल बाद लाखों का हर्जाना लेकर उन्हें राजा तो बना दिया. लेकिन प्रशासन का कंट्रोल अंग्रेजों के खास दिनकर राव राजबाड़े के हाथों में दिया. जब जयाजीराव नाबालिग थे, तब ग्वालियर को अंग्रेजों से मोहना में एक संधि करनी पड़ी थी.
 
इसमें ये शर्त थी कि सिंधिया की सेना को युद्ध की हालत में अंग्रेजों का साथ देना होगा. ऐसे में जब रानी लक्ष्मीबाई की अगुवाई में बागी ग्वालियर आए और सिंधिया से मदद मांगी तो उन्होंने बागियों के लिए सहानुभूति दिखाई. ग्वालियर पर विद्रोहियों ने कब्जा कर लिया, लेकिन दिनकर राव ने अंग्रेजों के कब्जे वाली सेना का नेतृत्व करने के लिए जयाजीराव को मजबूर कर दिया.
 
जयाजीराव सिंधिया को अंग्रेजों से ग्वालियर का महाराजा होने की मान्यता नहीं मिली थी, विद्रोहियों का साथ देने पर अंग्रेज ग्वालियर पर कब्जा कर सकते थे. लिहाजा अंग्रेजों के चापलूस दिनकर राव की बात उन्हें मजबूरी में माननी पड़ी और वो सेनापति बन गए. इसके बाद सिंधिया की सेना ने विद्रोहियों का साथ छोड़ दिया.
 
वहीं 1857 में झांसी की घटनाओं की जानकारी मिलने पर सिंधिया की निजी सेना ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया था. लेकिन मोहना की संधि की वजह से जयाजीराव की सेना का बड़ा हिस्सा दिनकर राव राजबाड़े के जरिए अंग्रेजों के कब्जे में था. फिर क्या था, दिनकर राव के आदेश के बाद 9 हजार सैनिकों और आर्टिलरी का बड़ा हिस्सा ब्रिगेडियर रैम्से को सौंप दिया गया. अंग्रेजों ने इस मदद की बदौलत विद्रोह को दबा दिया.
 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को जितना याद किया जाता है, उतना ही महारानी की नारी सेना को याद किया जाता है। महारानी की नारी सेना देश की पहली महिला सेना थी। इस सेना में कही सारी वीरांगानाऐं थी, जिनसे अंग्रेज़ कांपते थे। ऐसी ही हैहयवंशीय वीरांगना मानवती देवी त्याग और बलिदान की अद्भुत मिसाल है। उनके पूरे परिवार ने मातृभूमि के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।
 
वीरांगना मानवती देवी के पती पराक्रमी वीर खुमान सिंह झाँसी की सेना में डाकुओं का दमन करने वाली टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। उनकी विधवा मानवती जी को झांसी की रानी महारानी लक्ष्मीबाई ने अपनी नारी सेना "दुर्गा दल" में महिला सैनिक के तौर पर नियुक्त किया था।
 
सन् १८५७ में आज के टीकमगढ़ के टिहरी-ओरछा राज्य की महारानी रानी लड़ई दुलैया सरकार जू देव बुंदेला के सेनापती नत्थे खान ने झाँसी पर आक्रमण किया था। तब महारानी और उनकी पुरी सेना ओरछा रानी के साथ लडे थे।
 
 
ओरछा के समीप प्रतापपुरा नामक स्थान पर रानी लक्ष्मीबाई और उनकी सेना और नत्थे खान के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इसमें मानवती देवी ने अपनी मां। महारानी और महारानी झांसी के प्रति निष्ठावान और स्वाभिमान की मिसाल देते हुए दुर्गा रूप धरे संहार करने लगी थी। मानवती जी ने अपने भाले से नत्थे खान के सिर पर ऐसा प्रहार किया की वह मूर्छित हो गया। जब उसे होश आया तो उसे ग्लानि हुई की मैं एक महिला के हाथों मार खाकर मूर्छित हो गया था। तब उसने कपट पूर्वक मानवती देवी के उपर प्रहार किया, जिस वजह से ३० नवम्बर १८५७ को वीरांगना मानवती देवी झांसी के प्रति वीरगति को प्राप्त हुई।


2. अमेरिका  के  राष्ट्रपति  अब्राहिम  लिंकन और   जॉन  ऍफ़  . कैनेडी का हुआ पुनर्जन्म. उनके जीवन और मृत्यु से जुड़ी घाटनाएं हैं प्रमाण    . लिंकन 06 नवंबर  1860 में  और  कैनेडी  1960 में  राष्ट्रपति  बने . अब्राहम लिंकन 1846 में कांग्रेस के लिए चुने गए थे.जॉन एफ कैनेडी 1946 में कांग्रेस के लिए चुने गए थे.
कैनेडी की 46 साल की उम्र में मृत्यु हुई थी, लिंकन की 56 साल की उम्र में मृत्यु हुई थी, दोनों राष्ट्रपतियों के 4-4 बच्चे थे जिनमें से 3-3 की जल्दी मौत हुई, सिर्फ एक-एक लंबा जीवन जी सके।
केनेडी अमेरिका नौ सेना में कमांडर थे, उन्होने द्वितीय विश्व युद्ध लड़ा, बाद में राष्ट्रपति बने. लिंकन अमेरिकी सेना में कैप्टन थे, उन्होने कई युद्ध लड़े, बाद में राष्ट्रपति बने.
 
दोनों राष्ट्रपति अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे।
 
दोनों एक अमेरिकी सीनेटर, अटॉर्नी जनरल, ग्रेट ब्रिटेन के राजदूत और बोस्टन के मेयर रहे थे।
दोनों राष्ट्रपति अपने माता-पिता की दूसरी संतान थे।
 
दोनों एक अमेरिकी सीनेटर, अटॉर्नी जनरल, ग्रेट ब्रिटेन के राजदूत और बोस्टन के मेयर रहे थे।
 
लिंकन के उत्तराधिकारी एंड्रयू जॉनसन का जन्म 1808 में हुआ था . कैनेडी के उत्तराधिकारी लिंडन जॉनसन का जन्म 1908 में हुआ था.लिंकन को 'फोर्ड' नाम के थिएटर में शूट किया गया था. कैनेडी को 'फोर्ड' द्वारा बनाई गई 'लिंकन' नामक कार में शूट किया गया था, लिंकन को एक थिएटर में गोली मार दी गई थी और हत्यारा एक गोदाम में भाग गया था. कैनेडी को एक गोदाम से गोली मार दी गई थी और हत्यारा एक थिएटर में भाग गया।
लिंकन अपनी मृत्यु के समय फोर्ड थिएटर के थिएटर बॉक्स नंबर सात में बैठे थे, कैनेडी अपने काफिले की सातवीं कार में सवार थे।
 
 
लिंकन के सचिव का नाम जॉन केनेडी था. कैनेडी के सचिव का नाम एवलिन लिंकन था,जो महिला थी (एवलिन मौरिन नॉर्टन लिंकन जन्म 25 जून, 1909 - 11 मई, 1995) । 
 
लिंकन की हत्या करने वाले जॉन विल्क्स बूथ का जन्म 1839 में हुआ था. कैनेडी की हत्या करने वाले ली हार्वे ओसवाल्ड का जन्म 1939 में हुआ था। वे दोनों दक्षिण अमेरिका में पैदा हुए थे।
दोनों  हत्यारों  को  अदालत  में  आने  से  पूर्व  मार  दिया  गया . दोनों  हत्यारों  के  नाम  15 अक्षर  के  थे,  दोनों हत्यारों को तीन नामों से जाना जाता था। . लिंकन  के  हत्यारे  का  उपनाम  कैनेडी  और  कैनेडी  के  हत्यारे  का  उपनाम  लिंकन  था . 
 
लिंकन के हत्यारे बुथ को वर्जीनिया के एक खेत में ट्रैक किया गया था।उसने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया था, उसे  सार्जेंट बोस्टन कॉर्बेट ने गोली मार दी.
इसी तरह कैनेडी के हत्यारे ओसवॉल्ड की एक कैनेडी समर्थक जैक रूबी ने गोली मारकर हत्या कर दी थी.
 
लिंकन और कैनेडी की शादी उनके तीसवें दशक में हुई थी, और उनकी पत्नियाँ उस समय अपने 20 वे दशक में थीं। लिंकन के चार बच्चे थे, जिनमें से दो की मृत्यु हो गई और दो उनके साथ रह गए। कैनेडी के साथ भी ऐसा ही हुआ था। 
 
लिंकन ने अपनी मौत से पहले अपने सचिव को कहा था, "मुझे पता है मैं मारा जा रहा हूं, इसे दुनिया में कोई नहीं रोक सकता।
उसी दिन उनकी हत्या हो गई।
 
कैनेडी ने अपनी मौत से पहले अपनी पत्नी से कहा
"दुनिया में कोई भी उस आदमी को नहीं रोक सकता जो मुझे मारना चाहता है". उसी दिन उनकी हत्या हो गई।  लिंकन और कैनेडी के शब्दों में कितनी समानता है!
 
लिंकन के सचिव ने उन्हें उस दिन थिएटर ना जाने की सलाह दी थी। लेकिन लिंकन ने सलाह नहीं मानी।
  कैनेडी के निजी सचिव ने भी कैनेडी को उस दिन डलास नहीं जाने की सलाह दी, जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया।।
 
 
 
जॉन फिटजेराल्ड केनेडी का जन्म 29 मई 1917 को 83 बील्स स्ट्रीट, ब्रुकलिन, मैसाचुसेट्स में हुआ था। 
कैनेडी अमेरिका के 35वें राष्ट्रपति थे , 20 जनवरी 1961 से राष्ट्रपति कार्यकाल शुरू हुआ, 1963 में उनकी हत्या कर दी गई। 43 साल की उम्र में राष्ट्रपति बने थे,  दुसरे सबसे कम उम्र के राष्ट्रपति थे.डेमोक्रैटिक पार्टी के प्रत्याशी थे.
 
 
अब्राहम लिंकन का जन्म 12 फरवरी, 1809 को हॉजगेनविले, केंटकी के पास हुआ था।अमेरिका के 16वें राष्ट्रपति थे.वे प्रथम रिपब्लिकन थे, जो अमेरिका के राष्ट्रपति बने.अब्राहम लिंकन का राष्ट्रपति पद 4 मार्च, 1861 को शुरू हुआ (पहला कार्यकाल ) , 8 नवंबर 1864 को वे दोबारा राष्ट्रपति चुने गए।
11 अप्रैल, 1865 को लिंकन को गोली मार दी गई .
 
 
केनेडी के बच्चे - 
एराबेला (1956-1956) प्रेगनेंसी के तीन महीने बाद मृत लड़की पैदा हुई. Female
कैरोलाइन बी. ( 1957) female
जॉन एफ़. जूनियर (1960 -1999 ) - Male
पैट्रिक बी. (1963 - 1963 ) only 48 hours live - Male
 
लिंकन के बच्चे - only son
 रॉबर्ट ( 1843-1926 ) 
एडवर्ड (1846-1850 )
विली (1850-1862 )
टॉड ( 1853-1871 )
 
 
 
 
 

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